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अग्ने॑ जु॒षस्व॒ प्रति॑ हर्य॒ तद्वचो॒ मन्द्र॒ स्वधा॑व॒ ऋत॑जात॒ सुक्र॑तो। यो वि॒श्वत॑: प्र॒त्यङ्ङसि॑ दर्श॒तो र॒ण्वः संदृ॑ष्टौ पितु॒माँ इ॑व॒ क्षय॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

agne juṣasva prati harya tad vaco mandra svadhāva ṛtajāta sukrato | yo viśvataḥ pratyaṅṅ asi darśato raṇvaḥ saṁdṛṣṭau pitumām̐ iva kṣayaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अग्ने॑। जु॒षस्व॑। प्रति॑। ह॒र्य॒। तत्। वचः॑। मन्द्र॑। स्वधा॑ऽवः। ऋत॑ऽजात। सुक्र॑तो॒ इति॒ सुऽक्र॑तो। यः। वि॒श्वतः॑। प्र॒त्यङ्। असि॑। द॒र्श॒तः। र॒ण्वः। सम्ऽदृ॑ष्टौ। पि॒तु॒मान्ऽइ॑व। क्षयः॑ ॥ १.१४४.७

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:144» मन्त्र:7 | अष्टक:2» अध्याय:2» वर्ग:13» मन्त्र:7 | मण्डल:1» अनुवाक:21» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (मन्द्र) प्रशंसनीय (स्वधावः) प्रशंसित अन्नवाले (ऋतजात) सत्य व्यवहार से उत्पन्न हुए (सुक्रतो) सुन्दर कर्मों से युक्त (अग्ने) बिजुली के समान वर्त्तमान विद्वान् (यः) जो (विश्वतः) सबके (प्रत्यङ्) प्रति जाने वा सबसे सत्कार लेनेवाले (संदृष्टौ) अच्छे दीखने में (दर्शतः) दर्शनीय (रण्वः) शब्द शास्त्र को जाननेवाले विद्वान् आप (क्षयः) निवास के लिये घर (पितुमाँ इव) अन्नयुक्त जैसे हो वैसे (असि) हैं सो आप जो मेरी अभिलाषाकर (वचः) वचन है (तत्) उसको (जुषस्व) सेवो और (प्रति, हर्य) मेरे प्रति कामना करो ॥ ७ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो प्रशंसित बुद्धिवाले यथायोग्य आहार-विहार से रहते हुए सत्य व्यवहार में प्रसिद्ध धर्म के अनुकूल कर्म और बुद्धि रखनेहारे शास्त्रज्ञ विद्वानों के समीप से विद्या और उपदेशों को चाहते और सेवन करते हैं वे सबसे उत्तम होते हैं ॥ ७ ॥।इस सूक्त में अध्यापक और उपेदशकों के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति है, यह जानना चाहिये ॥यह एकसौ चवालीसवाँ सूक्त और तेरहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे मन्द्र स्वधाव ऋतजात सुक्रतोऽग्ने यो विश्वतः प्रत्यङ्संदृष्टौ दर्शतो रण्यो विद्वँस्त्वं क्षयः पितुमानिवासि स त्वं यन्मयेप्सितं वचस्तज्जुषस्व प्रति हर्य ॥ ७ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्ने) विद्युदिव वर्त्तमान (जुषस्व) (प्रति) (हर्य) कामयस्व (तत्) (वचः) (मन्द्र) प्रशंसनीय (स्वधावः) प्रशस्तं स्वधाऽन्नं विद्यते यस्य तत्सम्बुद्धौ (ऋतजात) ऋतात्सत्यात्प्रादुर्भूत (सुक्रतो) सुकर्मन् (यः) (विश्वतः) (प्रत्यङ्) प्रत्यञ्चतीति (असि) (दर्शतः) द्रष्टव्यः (रण्वः) शब्दविद्यावित् (संदृष्टौ) सम्यक् दर्शने (पितुमानिव) यथाऽन्नादियुक्तः (क्षयः) निवासार्थः प्रासादः ॥ ७ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। ये प्रशंसितबुद्धयो युक्ताहारविहाराः सत्ये व्यवहारे प्रसिद्धा धर्म्यकर्मप्रज्ञाः आप्तानां विदुषां सकाशाद्विद्या उपदेशाँश्च कामयन्ते सेवन्ते च ते सर्वोत्कृष्टा जायन्ते ॥ अत्राऽध्यापकोपदेशकगुणवर्णनादेतत्सूक्तार्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम् ॥इति चतुश्चत्वारिंशदुत्तरं शततमं सूक्तं त्रयोदशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे प्रशंसित बुद्धिमान, यथायोग्य आहार विहार करून सत्य व्यवहारात प्रसिद्ध, धर्मानुकूल कर्म करणाऱ्या प्रज्ञा असणाऱ्या शास्त्रज्ञ विद्वानांकडून विद्या व उपदेश घेऊ इच्छितात व ती ग्रहण करतात ते सर्वोत्कृष्ट असतात. ॥ ७ ॥