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तमीं॑ हिन्वन्ति धी॒तयो॒ दश॒ व्रिशो॑ दे॒वं मर्ता॑स ऊ॒तये॑ हवामहे। धनो॒रधि॑ प्र॒वत॒ आ स ऋ॑ण्वत्यभि॒व्रज॑द्भिर्व॒युना॒ नवा॑धित ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tam īṁ hinvanti dhītayo daśa vriśo devam martāsa ūtaye havāmahe | dhanor adhi pravata ā sa ṛṇvaty abhivrajadbhir vayunā navādhita ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

तम्। ई॒म्। हि॒न्व॒न्ति॒। धी॒तयः॑। दश॑। व्रिशः॑। दे॒वम्। मर्ता॑सः। ऊ॒तये॑। ह॒वा॒म॒हे॒। धनोः॑। अधि॑। प्र॒ऽवतः॑। आ। सः। ऋ॒ण्व॒ति॒। अ॒भि॒व्रज॑त्ऽभिः। व॒युना॑। नवा॑। अ॒धि॒त॒ ॥ १.१४४.५

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:144» मन्त्र:5 | अष्टक:2» अध्याय:2» वर्ग:13» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:21» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! (मर्त्तासः) मरणधर्मा मनुष्य हम लोग (ऊतये) रक्षा आदि के लिये जिस (देवम्) विद्वान् को (हवामहे) स्वीकार करते वा (दश) दश (धीतयः) हाथ-पैरों की अङ्गुलियों के समान (व्रिशः) प्रजा जिसको (हिन्वन्ति) प्रसन्न करती हैं (तम्, ईम्) उसी को तुम लोग ग्रहण करो, जो धनुर्विद्या का जाननेवाला (धनोः) धनुष के (अधि) ऊपर आरोप कर छोड़े (प्रवतः) जाते हुए वाणों को (अधित) धारण करता अर्थात् उनका सन्धान करता है (सः) वह (अभिव्रजद्भिः) सब ओर से जाते हुए विद्वानों के साथ (नवा) नवीन (वयुना) उत्तम-उत्तम ज्ञानों को (आ, ऋण्वति) अच्छे प्रकार प्राप्त होता है ॥ ५ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे हाथों की अङ्गुलियों से भोजन आदि की क्रिया करने से शरीरादि बढ़ते हैं वैसे विद्वानों के अध्यापन और उपदेशों की क्रिया से प्रजाजन वृद्धि पाते हैं वा जैसे धनुर्वेद का जाननेवाला शत्रुओं को जीतकर रत्नों को प्राप्त होता है वैसे विद्वानों के सङ्ग के फल को जाननेवाला जन उत्तम ज्ञानों को प्राप्त होता है ॥ ५ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे मनुष्या मर्त्तासो वयमूतये यं देवं हवामहे दश धीतयो व्रिशोयं हिन्वन्ति तमीं यूयं स्वीकुरुत यो धनुर्विद्धनोरधिक्षिप्तान् प्रवतो गच्छतो वाणानधित सोऽभिव्रजद्भिर्विद्वद्भिस्सह नवा वयुना आऋण्वति ॥ ५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (तम्) (ईम्) (हिन्वन्ति) हितं कुर्वन्ति प्रीणयन्ति (धीतयः) करपादाङ्गुलयइव (दश) (व्रिशः) प्रजाः। अत्र वर्णव्यत्ययेन वस्य स्थाने व्रः। (देवम्) विद्वांसम् (मर्त्तासः) मनुष्याः (ऊतये) रक्षणाद्याय (हवामहे) गृह्णीमः (धनोः) धनुषः (अधि) उपरि (प्रवतः) प्रवणं प्राप्तान्वाणानिव (आ) समन्तात् (सः) (ऋण्वति) प्राप्नोति। अत्र विकरणद्वयम्। (अभिव्रजद्भिः) अभितो गच्छद्भिः (वयुना) वयुनानि प्रज्ञानानि (नवा) नवानि (अधित) दधाति ॥ ५ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा कराङ्गुलिभिर्भोजनादिक्रियया शरीराणि वर्द्धन्ते तथा विद्वदध्यापनोपदेशक्रियया प्रजा वर्धन्ते यथा च धनुर्वेदवित् शत्रून् जित्वा रत्नानि लभते तथा विद्वत्सङ्गफलविद्विज्ञानानि प्राप्नोति ॥ ५ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे हाताच्या बोटांनी भोजन वगैरे क्रिया करण्यामुळे शरीर विकसित होते, तसे विद्वानांच्या अध्यापन व उपदेशाने प्रजा विकसित होते. धनुर्वेद जाणणारा शत्रूंना जिंकून रत्ने प्राप्त करतो तसे विद्वानांच्या संगतीचे फळ जाणणारे लोक उत्तम ज्ञान प्राप्त करतात. ॥ ५ ॥