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शुचि॑: पाव॒को अद्भु॑तो॒ मध्वा॑ य॒ज्ञं मि॑मिक्षति। नरा॒शंस॒स्त्रिरा दि॒वो दे॒वो दे॒वेषु॑ य॒ज्ञिय॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

śuciḥ pāvako adbhuto madhvā yajñam mimikṣati | narāśaṁsas trir ā divo devo deveṣu yajñiyaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

शुचिः॑। पा॒व॒कः। अद्भु॑तः। मध्वा॑। य॒ज्ञम्। मि॒मि॒क्ष॒ति॒। नरा॒शंसः॑। त्रिः। आ। दि॒वः। दे॒वः। दे॒वेषु॑। य॒ज्ञियः॑ ॥ १.१४२.३

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:142» मन्त्र:3 | अष्टक:2» अध्याय:2» वर्ग:10» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:21» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - जो (पावकः) पवित्र करनेवाले अग्नि के समान (अद्भुतः) आश्चर्य गुण, कर्म, स्वभाववाला (शुचिः) पवित्र (यज्ञियः) यज्ञ करने योग्य (नराशंस) नरों से प्रशंसा को प्राप्त और (देवः) कामना करता हुआ जन (देवेषु) विद्वानों में (दिवः) कामना से (मध्वा) मधुर शर्करा वा सहत से (यज्ञम्) यज्ञ को (त्रिः) तीन बार (आ, मिमिक्षति) अच्छे प्रकार सींचने वा पूरे करने की इच्छा करता है, वह सुख पाता है ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य बालकाई, ज्वानी और बुढ़ापे में विद्याप्रचाररूपी व्यवहार को करें, वे कायिक, वाचिक और मानसिक सुखों को प्राप्त होवें ॥ ३ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

यः पावकइवाद्भुतः शुचिर्यज्ञियो नराशंसो देवो देवेषु दिवो मध्वा यज्ञं त्रिरामिमिक्षति स सुखमाप्नोति ॥ ३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (शुचिः) पवित्रः (पावकः) पवित्रकारकोऽग्निरिव (अद्भुतः) आश्चर्यगुणकर्मस्वभावः (मध्वा) मधुना सह (यज्ञम्) (मिमिक्षति) मेढ़ुं सिञ्चितुमलङ्कर्त्तुमिच्छति (नराशंसः) नरैः प्रशंसितः (त्रिः) त्रिवारम् (आ) समन्तात् (दिवः) कामनातः (देवः) कामयमानः (देवेषु) विद्वत्सु (यज्ञियः) यज्ञं कर्त्तुमर्हः ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - ये मनुष्याः कौमारयौवनवृद्धावस्थासु विद्याप्रचाराख्यं व्यवहारं कुर्युस्ते कायिकवाचिकमानसिकसुखानि प्राप्नुयुः ॥ ३ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जी माणसे बालपण, तारुण्य व वृद्धावस्थेमध्ये विद्याप्रचाररूपी व्यवहार करतात ते कायिक, वाचिक व मानसिक सुख प्राप्त करतात. ॥ ३ ॥