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पू॒ष॒ण्वते॑ म॒रुत्व॑ते वि॒श्वदे॑वाय वा॒यवे॑। स्वाहा॑ गाय॒त्रवे॑पसे ह॒व्यमिन्द्रा॑य कर्तन ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pūṣaṇvate marutvate viśvadevāya vāyave | svāhā gāyatravepase havyam indrāya kartana ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

पू॒ष॒ण्ऽवते॑। म॒रुत्व॑ते। वि॒श्वऽदे॑वाय। वा॒यवे॑। स्वाहा॑। गा॒य॒त्रऽवे॑पसे। ह॒व्यम्। इन्द्रा॑य। क॒र्त॒न॒ ॥ १.१४२.१२

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:142» मन्त्र:12 | अष्टक:2» अध्याय:2» वर्ग:11» मन्त्र:6 | मण्डल:1» अनुवाक:21» मन्त्र:12


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! तुम (स्वाहा) सत्य क्रिया से (पूषण्वते) जिसके बहुत पुष्टि करनेवाले गुण (मरुत्वते) जिसमें प्रशंसायुक्त विद्या की स्तुति करनेवाले (विश्वदेवाय) वा समस्त विद्वान् जन विद्यमान (वायवे) प्राप्त होने योग्य (गायत्रवेपसे) गानेवाले की रक्षा करता हुआ जिनसे रूप प्रकट होता उस (इन्द्राय) परमैश्वर्य के लिये (हव्यम्) ग्रहण करने योग्य कर्म को (कर्त्तन) करो ॥ १२ ॥
भावार्थभाषाः - जिस धन से पुष्टि, विद्या विद्वानों का सत्कार, वेदविद्या की प्रवृत्ति और सर्वोपकार हो वही धर्म सम्बन्धी धन है, और नहीं ॥ १२ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे मनुष्या यूयं स्वाहा पूषण्वते मरुत्वते विश्वदेवाय वायवे गायत्रवेपस इन्द्राय हव्यं कर्त्तन ॥ १२ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (पूषण्वते) बहवः पूषणः पुष्टिकर्त्तारो गुणा विद्यन्ते यस्मिंस्तस्मिन् (मरुत्वते) प्रशंसिता मरुतो विद्यास्तावकाः सन्ति यस्मिन् (विश्वदेवाय) विश्वेऽखिला देवा विद्वांसो यस्मिंस्तस्मै (वायवे) प्राप्तुं योग्याय (स्वाहा) सत्यया क्रियया (गायत्रवेपसे) गायत्रं गायन्तं त्रायमाणं वेपो रूपं यस्मात् तस्मै (हव्यम्) आदातुमर्हं कर्म (इन्द्राय) परमैश्वर्याय (कर्त्तन) कुरुत ॥ १२ ॥
भावार्थभाषाः - येन धनेन पुष्टिर्विद्याविद्वत्सत्कारौ वेदविद्याप्रवृत्तिः सर्वोपकारश्च स्यात्तदेव धर्म्यं धनं भवति नेतरत् ॥ १२ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - ज्या धनामुळे पुष्टी, विद्या, विद्वानांचा सत्कार वेदविद्येची प्रवृत्ती व सर्वोपकार करता येतो तेच धर्मयुक्त धन आहे, अन्य नव्हे. ॥ १२ ॥