वांछित मन्त्र चुनें

निर्यदीं॑ बु॒ध्नान्म॑हि॒षस्य॒ वर्प॑स ईशा॒नास॒: शव॑सा॒ क्रन्त॑ सू॒रय॑:। यदी॒मनु॑ प्र॒दिवो॒ मध्व॑ आध॒वे गुहा॒ सन्तं॑ मात॒रिश्वा॑ मथा॒यति॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

nir yad īm budhnān mahiṣasya varpasa īśānāsaḥ śavasā kranta sūrayaḥ | yad īm anu pradivo madhva ādhave guhā santam mātariśvā mathāyati ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

निः। यत्। ई॒म्। बु॒ध्नात्। म॒हि॒षस्य॑। वर्प॑सः। ई॒शा॒नासः॑। शव॑सा। क्रन्त॑। सू॒रयः॑। यत्। ई॒म्। अनु॑। प्र॒ऽदिवः॑। मध्वः॑। आ॒ऽध॒वे। गुहा॑। सन्त॑म्। मा॒त॒रिश्वा॑। म॒था॒यति॑ ॥ १.१४१.३

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:141» मन्त्र:3 | अष्टक:2» अध्याय:2» वर्ग:8» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:21» मन्त्र:3


बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - (यत्) जो (ईशानासः) ऐश्वर्ययुक्त (सूरयः) विद्वान् जन (शवसा) बल से जैसे (आधवे) सब ओर से अन्न आदि के अलग करने के निमित्त (मातरिश्वा) प्राण वायु जाठराग्नि को (मथायति) मथता है वैसे (महिषस्य) बड़े (वर्पसः) रूप अर्थात् सूर्यमण्डल के सम्बन्ध में स्थित (बुध्नात्) अन्तरिक्ष से (ईम्) इस प्रत्यक्ष व्यवहार को (अनुक्रन्त) अनुक्रम से प्राप्त हों वा (मध्वः) विशेष ज्ञानयुक्त (प्रदिवः) कान्तिमान् आत्मा के (गुहा) गुहाशय में अर्थात् बुद्धि में (सन्तम्) वर्त्तमान (ईम्) प्रत्यक्ष (यत्) जिस ज्ञान को (निष्क्रन्त) निरन्तर क्रम से प्राप्त हों, उससे वे सुखी होते हैं ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। वे ही ब्रह्मवेत्ता विद्वान् होते हैं, जो धर्मानुष्ठान, योगाभ्यास और सत्सङ्ग करके अपने आत्मा को जान परमात्मा को जानते हैं और वे ही मुमुक्षु जनों के लिये इस ज्ञान को विदित कराने के योग्य होते हैं ॥ ३ ॥
बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

यत् ईशानासः सूरयश्शवसा यथाधवे मातरिश्वाऽग्निं मथायति तथा महिषस्य वर्पसः सम्बन्धे स्थितं बुध्नादीमनुक्रन्तमध्वः प्रदिवो गुहा सन्तमीं यत् निष्क्रन्त ततस्ते सुखिनो जायन्ते ॥ ३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (नि) नितराम् (यत्) यम् (ईम्) इमं प्रत्यक्षम् (बुध्नात्) अन्तरिक्षात् (महिषस्य) महतः। महिष इति महन्ना० ३। ३। (वर्पसः) रूपस्य। वर्प इति रूपना०। निघं० ३। ७। (ईशानासः) ऐश्वर्ययुक्ताः (शवसा) बलेन (क्रन्त) क्रमन्तु (सूरयः) विद्वांसः (यत्) ये (ईम्) (अनु) (प्रदिवः) प्रकृष्टद्युतिमतः (मध्वः) विज्ञानयुक्तस्य (आधवे) समन्तात्प्रक्षेपणे (गुहा) बुद्धौ (सन्तम्) (मातरिश्वा) प्राणः (मथायति) मथ्नाति। अत्र छन्दसि शायजपीति शायच् ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। त एव ब्रह्मविदो जायन्ते ये धर्माऽनुष्ठानयोगाभ्यासं सत्सङ्गं च कृत्वा स्वात्मानं विदित्वा परमात्मानं विदन्ति त एव मुमुक्षुभ्य एतं ज्ञापयितुमर्हन्ति ॥ ३ ॥
बार पढ़ा गया

माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. तेच ब्रह्मवेत्ते विद्वान असतात जे धर्मानुष्ठान, योगाभ्यास व सत्संग करून आपल्या आत्म्याला जाणून परमात्म्याला जाणतात. तेच मुमुक्षु लोकांना हे ज्ञान प्राप्त करून देतात. ॥ ३ ॥