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अ॒स्मे र॒यिं न स्वर्थं॒ दमू॑नसं॒ भगं॒ दक्षं॒ न प॑पृचासि धर्ण॒सिम्। र॒श्मीँरि॑व॒ यो यम॑ति॒ जन्म॑नी उ॒भे दे॒वानां॒ शंस॑मृ॒त आ च॑ सु॒क्रतु॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

asme rayiṁ na svarthaṁ damūnasam bhagaṁ dakṣaṁ na papṛcāsi dharṇasim | raśmīm̐r iva yo yamati janmanī ubhe devānāṁ śaṁsam ṛta ā ca sukratuḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒स्मे इति॑। र॒यिम्। न। सु॒ऽअर्थ॑म्। दमू॑नसम्। भग॑म्। दक्ष॑म्। न। प॒पृ॒चा॒सि॒। ध॒र्ण॒सिम्। र॒श्मीन्ऽइ॑व। यः। यम॑ति। जन्म॑नी॒ इति॑। उ॒भे इति॑। दे॒वाना॑म्। शंस॑म्। ऋ॒ते। आ। च॒। सु॒ऽक्रतुः॑ ॥ १.१४१.११

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:141» मन्त्र:11 | अष्टक:2» अध्याय:2» वर्ग:9» मन्त्र:6 | मण्डल:1» अनुवाक:21» मन्त्र:11


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - जो (सुक्रतुः) उत्तम बुद्धिवाला विद्वान् ! (अस्मे) हम लोगों के लिये (स्वर्थम्) जिससे अच्छा प्रयोजन हो वा जो अनर्थ साधनों से रहित उस (रयिम्) धन के (न) समान (दमूनसम्) इन्द्रियों को विषयों में दबा देने के समानरूप (भगम्) ऐश्वर्य्य का और (दक्षम्) चतुर के (न) समान (धर्णसिम्) धारण करनेवाले का (पपृचासि) सम्बन्ध करता वा (रश्मीरिव) जैसे किरणों को वैसे (ऋते) सत्य व्यवहार में (देवानाम्) विद्वानों के (उभे) दो (जन्मनी) अगले-पिछले जन्म (च) और (शंसम्) प्रशंसा को (यः) जो (आ, यमति) बढ़ता है, वह हमलोगों को सत्कार करने योग्य है ॥ ११ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार हैं। जो सूर्य की किरणों के समान सबको धर्मसम्बन्धी पुरुषार्थ मे संयुक्त करते हैं और आप भी वैसे ही वर्त्तते हैं, वे अगले-पिछले जन्मों को पवित्र करते हैं ॥ ११ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

यः सुक्रतुर्विद्वानस्मे स्वर्थं रयिं न दमूनसं भगं दक्षं न धर्णसिं पपृचासि रश्मींरिव ऋते देवानामुभे जन्मनी शंसं च य आयमति सोऽस्माभिः सत्कर्त्तव्यो भवति ॥ ११ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अस्मे) अस्मभ्यम् (रयिम्) धनम् (न) इव (स्वर्थम्) सुष्ठ्वर्थः प्रयोजनं यस्माद्यद्वाऽनर्थसाधनरिहतम् (दमूनसम्) दमनसाधकम् (भगम्) ऐश्वर्यं भजमानम् (दक्षम्) अतिचतुरम् (न) इव (पपृचासि) संबध्नाति। अत्र व्यत्ययेन युष्मत्। (धर्णसिम्) धर्त्तारम्। अत्र बाहुलकादसिः प्रत्ययो नुडागमश्च। (रश्मींरिव) यथा किरणान् तथा (यः) (यमति) यच्छेत्। अत्र लेटि बहुलं छन्दसीति शबभावः। (जन्मनी) पूर्वापरे (उभे) द्वे (देवानाम्) विदुषाम् (शंसम्) प्रशंसाम् (ऋते) सत्ये (आ) (च) (सुक्रतुः) शोभनप्रज्ञः ॥ ११ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्काराः। ये सूर्यरश्मिवत्सर्वान् धर्म्ये पुरुषार्थे संयुञ्जन्ति स्वयं च तथैव वर्त्तन्ते ते गताऽगते जन्मनी पवित्रे कुर्वन्ति ॥ ११ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे सूर्यकिरणांप्रमाणे सर्वांना धर्माने पुरुषार्थात संयुक्त करतात व स्वतःही तसेच वागतात ते पुढच्या-मागच्या जन्माला पवित्र करतात. ॥ ११ ॥