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रथा॑य॒ नाव॑मु॒त नो॑ गृ॒हाय॒ नित्या॑रित्रां प॒द्वतीं॑ रास्यग्ने। अ॒स्माकं॑ वी॒राँ उ॒त नो॑ म॒घोनो॒ जनाँ॑श्च॒ या पा॒रया॒च्छर्म॒ या च॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

rathāya nāvam uta no gṛhāya nityāritrām padvatīṁ rāsy agne | asmākaṁ vīrām̐ uta no maghono janām̐ś ca yā pārayāc charma yā ca ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

रथा॑य। नाव॑म्। उ॒त। नः॒। गृ॒हाय॑। नित्य॑ऽअरित्राम्। प॒त्ऽवती॑म्। रा॒सि॒। अ॒ग्ने॒। अ॒स्माक॑म्। वी॒रान्। उ॒त। नः॒। म॒घोनः॑। जना॑न्। च॒। या। पा॒रया॑त्। शर्म॑। या। च॒ ॥ १.१४०.१२

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:140» मन्त्र:12 | अष्टक:2» अध्याय:2» वर्ग:7» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:21» मन्त्र:12


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) शिल्पविद्या पाये हुए विद्वान् ! आप (या) जो (अस्माकम्) हमारे (वीरान्) वीरों (उत) और भी (मघोनः) धनवान् (जनान्) मनुष्यों और (नः) हम लोगों को (च) भी समुद्र के (पारयात्) पार उतारे (च) और (या) जो हमको (शर्म) सुख को अच्छे प्रकार प्राप्त करे उस (नित्यारित्राम्) नित्य दृढ़ बन्धनयुक्त जल की गहराई की परीक्षा करनेवाले स्तम्भों तथा (पद्वतीम्) पैरों के समान प्रशंसित पहियों से युक्त (नावम्) बड़ी नाव को (नः) हमारे (रथाय) समुद्र आदि में रमण के लिये (उत) वा (गृहाय) घर के लिये (रासि) देते हो ॥ १२ ॥
भावार्थभाषाः - विद्वानों को चाहिये कि जैसे मनुष्य और घोड़े आदि पशु पैरों से चलते हैं, वैसे चलनेवाली बड़ी नाव रचके और एक द्वीप से दूसरे द्वीप वा समुद्र में युद्ध अथवा व्यवहार के लिये जाय-आय (=जाना-आना) करके ऐश्वर्य की उन्नति निरन्तर करें ॥ १२ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे अग्ने विद्वँस्त्वं या अस्माकं वीरानुत मघोनो जनान्नोऽस्माँश्च समुद्रं पारयात् या च नः शर्मागमयेत् तां नित्यारित्रां पद्वतीं नावं नो रथायोत गृहाय रासि ॥ १२ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (रथाय) समुद्रादिषु रमणाय (नावम्) बृहतीं नौकाम् (उत) अपि (नः) अस्माकम् (गृहाय) निवासस्थानाय (नित्यारित्राम्) नित्यानि अरित्राणि स्तम्भनानि जलगाम्भीर्य्यपरीक्षकाणि यस्यां ताम् (पद्वतीम्) पादा इव प्रशस्तानि चक्राणि विद्यन्ते यस्यां ताम् (रासि) ददासि (अग्ने) प्राप्तशिल्पविद्य (अस्माकम्) (वीरान्) अतिरथान्योद्धॄन् (उत) अपि (नः) अस्मान् (मघोनः) धनाढ्यान् (जनान्) प्रसिद्धान् विदुषः (च) (या) (पारयात्) समुद्रपारं गमयेत् (शर्म) गृहम् (या) (च) ॥ १२ ॥
भावार्थभाषाः - विद्वद्भिर्यथा मनुष्या अश्वादयश्च पद्भ्यां गच्छन्ति तादृशीं बृहतीं नावं रचयित्वा द्वीपान्तरे समुद्रे युद्धाय व्यवहाराय च गत्वाऽऽगत्य ऐश्वर्योन्नतिः सततं कार्य्या ॥ १२ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जशी माणसे, घोडे व पशू पायांनी चालतात तशा विद्वानांनी नावा तयार करून एका द्वीपाहून दुसऱ्या द्वीपात किंवा समुद्रात युद्ध अथवा व्यवहारासाठी जाणे येणे करून ऐश्वर्य वाढवावे ॥ १२ ॥