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अचे॑ति दस्रा॒ व्यू१॒॑नाक॑मृण्वथो यु॒ञ्जते॑ वां रथ॒युजो॒ दिवि॑ष्टिष्वध्व॒स्मानो॒ दिवि॑ष्टिषु। अधि॑ वां॒ स्थाम॑ ब॒न्धुरे॒ रथे॑ दस्रा हिर॒ण्यये॑। प॒थेव॒ यन्ता॑वनु॒शास॑ता॒ रजोऽञ्ज॑सा॒ शास॑ता॒ रज॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

aceti dasrā vy u nākam ṛṇvatho yuñjate vāṁ rathayujo diviṣṭiṣv adhvasmāno diviṣṭiṣu | adhi vāṁ sthāma vandhure rathe dasrā hiraṇyaye | patheva yantāv anuśāsatā rajo ñjasā śāsatā rajaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अचे॑ति। द॒स्रा॒। वि। ऊँ॒ इति॑। नाक॑म्। ऋ॒ण्व॒थः॒। यु॒ञ्जते॑। वा॒म्। र॒थ॒ऽयुजः॑। दिवि॑ष्टिषु। अ॒ध्व॒स्मानः॑। दिवि॑ष्टिषु। अधि॑। वा॒म्। स्थाम॑। ब॒न्धुरे॑। रथे॑। द॒स्रा॒। हि॒र॒ण्यये॑। प॒थाऽइ॑व। यन्तौ॑। अ॒नु॒ऽशास॑ता। रजः॑। अञ्ज॑सा। शास॑ता। रजः॑ ॥ १.१३९.४

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:139» मन्त्र:4 | अष्टक:2» अध्याय:2» वर्ग:3» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:20» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (दस्रा) दुःख दूर करनेहारे विद्वानो ! आप जिस (नाकम्) दुःखरहित व्यवहार को (व्यृण्वथः) प्राप्त कराते हो तथा (दिविष्टिषु) आकाश मार्गों में (वाम्) तुम्हारे (रथयुजः) रथों को युक्त करनेवाले अग्नि आदि पदार्थ वा (दिविष्टिषु) दिव्य व्यवहारों में (अध्वस्मानः) न नीच दशा में गिरनेवाले जन (युञ्जते) रथ को युक्त करते हैं सो (अचेति) ज्ञान होता है जाना जाता है, इससे (उ) ही हे (दस्रा) दुःख दूर करने (रजः) लोक को (अनुशासता) अनुकूल शिक्षा देने (अञ्जसा) साक्षात् (रजः) ऐश्वर्य्य की (शासता) शिक्षा देने (पथेव) जैसे मार्ग से वैसे आकाशमार्ग में (यन्तौ) चलानेहारो (वाम्) तुम्हारे (हिरण्यये) सुवर्णमये (बन्धुरे) दृढ़ बन्धनों से युक्त (रथे) विमान आदि रथ में हम लोग (अधि, ष्ठाम) अधिष्ठित हों, बैठें ॥ ४ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो विद्वानों को प्राप्त हो शिल्प विद्या पढ़ और विमानादि रथ को सिद्ध कर अन्तरिक्ष में जाते हैं, वे सुख को प्राप्त होते हैं ॥ ४ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे दस्रा युवां यं नाक व्यृण्वथो दिविष्टिषु वां रथयुजो दिविष्टिष्वध्वस्मानो रथं युञ्जते सोऽचेत्यतउ हे दस्रा रजोऽनुशासताऽञ्जसा रजः शासता पथेव यन्तौ वां हिरण्यये बन्धुरे रथे वयमधिष्ठाम ॥ ४ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अचेति) संज्ञायते (दस्रा) (वि) (उ) (नाकम्) अविद्यमानदुःखम् (ऋण्वथः) (युञ्जते) (वाम्) युवयोः (रथयुजः) ये रथं युञ्जते ते (दिविष्टिषु) आकाशमार्गेषु (अध्वस्मानः) ये नाधः पतन्ति। ध्वसु, अधः पतने। (दिविष्टिषु) दिव्येषु व्यवहारेषु (अधि) (वाम्) युवयोः (स्थाम) तिष्ठेम (बन्धुरे) दृढबन्धनयुक्ते (रथे) (दस्रा) (हिरण्यये) प्रभूतसुवर्णमये (पथेव) यथा मार्गेण (यन्तौ) गमयन्तौ (अनुशासता) अनुशासितारौ (रजः) लोकम् (अञ्जसा) शीघ्रम् (शासता) (रजः) ऐश्वर्यम् ॥ ४ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। ये विद्वांसं प्राप्य शिल्पविद्यामधीत्य विमानं यानं निर्मायाऽन्तरिक्षं गच्छन्ति ते सुखमाप्नुवन्ति ॥ ४ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे विद्वानांना प्राप्त असलेली शिल्पविद्या (कारागिरी) शिकून विमान इत्यादी रथ तयार करून अंतरिक्षात जातात, ते सुखी होतात. ॥ ४ ॥