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अ॒स्या ऊ॒ षु ण॒ उप॑ सा॒तये॑ भु॒वोऽहे॑ळमानो ररि॒वाँ अ॑जाश्व श्रवस्य॒ताम॑जाश्व। ओ षु त्वा॑ ववृतीमहि॒ स्तोमे॑भिर्दस्म सा॒धुभि॑:। न॒हि त्वा॑ पूषन्नति॒मन्य॑ आघृणे॒ न ते॑ स॒ख्यम॑पह्नु॒वे ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

asyā ū ṣu ṇa upa sātaye bhuvo heḻamāno rarivām̐ ajāśva śravasyatām ajāśva | o ṣu tvā vavṛtīmahi stomebhir dasma sādhubhiḥ | nahi tvā pūṣann atimanya āghṛṇe na te sakhyam apahnuve ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒स्याः। ऊँ॒ इति॑। सु। नः॒। उप॑। सा॒तये॑। भु॒वः॒। अहे॑ळमानः। र॒रि॒ऽवान्। अ॒ज॒ऽअ॒श्व॒। श्र॒व॒स्य॒ताम्। अ॒ज॒ऽअ॒श्व॒। ओ इति॑। सु। त्वा॒। व॒वृ॒ती॒म॒हि॒। स्तोमे॑ऽभिः। द॒स्म॒। सा॒धुऽभिः॑। न॒हि। त्वा॒। पू॒ष॒न्। अ॒ति॒ऽमन्ये॑। आ॒घृ॒णे॒। न। ते॒। स॒ख्यम्। अ॒प॒ऽह्नु॒वे ॥ १.१३८.४

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:138» मन्त्र:4 | अष्टक:2» अध्याय:2» वर्ग:2» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:20» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (पूषन्) पुष्टि करनेवाले ! (अजाश्व) जिनके छेरी और घोड़े विद्यमान हैं ऐसे (श्रवस्यताम्) अपने को धन चाहनेवालों में (अजाश्व) जिनकी छेरी घोड़ों के तुल्य उनके समान हे विद्वन् ! आप (नः) हमारे लिये (अस्याः) इस उत्तम बुद्धि के (सातये) बाँटने को (ररिवान्) देनेवाले और (अहेडमानः) सत्कारयुक्त (सूप, भुवः) उत्तमता से समीप में हूजिये, हे (आघृणे) सब ओर से प्रकाशमान पुष्टि करनेवाले पुरुष ! मैं (ते) आपके (सख्यम्) मित्रपन और मित्रता के काम को (न) न (अपह्नुवे) छिपाऊँ (त्वा) आपका (नहि, अतिमन्ये) अत्यन्त मान्य न करूँ किन्तु यथायोग्य आपको मानूँ (उ) और (ओ) हे (दस्म) दुःख मिटानेवाले (स्तोमेभिः) स्तुतियों से युक्त (साधुभिः) सज्जनों के साथ वर्त्तमान हम लोग (त्वा) आपको (सु, ववृतीमहि) अच्छे प्रकार निरन्तर वर्त्तें अर्थात् आपके अनुकूल रहें ॥ ४ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। धार्मिक विद्वानों के साथ सिद्ध मित्रभाव को वर्त्त कर सब मनुष्यों को चाहिये कि बहुत प्रकार की उत्तम-उत्तम बुद्धियों को प्राप्त होवें और कभी किसी शिष्ट पुरुष का तिरस्कार न करें ॥ ४ ॥ इस सूक्त में पुष्टि करनेवाले विद्वान् वा धार्मिक सामान्य जन की प्रशंसा के वर्णन से इस सूक्त के अर्थ की पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति है, यह जानना चाहिये ॥यह एकसौ अड़तीसवाँ सूक्त और दूसरा वर्ग पूरा हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे पूषन्नजाश्व श्रवस्यतामजाश्वेव त्वं नोऽस्याः प्रज्ञायाः सातये ररिवानहेडमानः सूपभुवः। हे आघृणे पूषन्नहं ते तव सख्यं नापह्नुवे त्वा नह्यतिमन्ये ओ दस्म स्तोमेभिः साधुभिः सह वर्त्तमाना वयमु त्वा त्वां सुववृतीमहि ॥ ४ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अस्याः) प्रज्ञायाः (उ) वितर्के (सु) अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (नः) अस्मभ्यम् (उप) (सातये) विभागाय (भुवः) भव। अत्र लुङि विकरणव्यत्ययेन शः प्रत्ययोऽडभावश्च (अहेळमानः) सत्कृतः सन् (ररिवान्) दाता (अजाश्व) अजा अश्वाश्च विद्यन्ते यस्य तत्सम्बुद्धौ (श्रवस्यताम्) आत्मनः श्रवो धनमिच्छताम् (अजाश्व) (ओ) सम्बोधने (सु) (त्वा) त्वाम् (ववृतीमहि) भृशं वर्त्तेमहि (स्तोमेभिः) स्तुतिभिः (दस्म) दुखोपक्षयितः (साधुभिः) सज्जनैः सह (नहि) (त्वा) त्वाम् (पूषन्) (अतिमन्ये) अतिमानं कुर्याम् (आघृणे) समन्ताद्देदीप्यमान (न) (ते) तव (सख्यम्) मित्रस्य भावं कर्म वा (अपह्नुवे) आच्छादयेयम् ॥ ४ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। धार्मिकैर्विद्वद्भिः सह प्रसिद्धं मित्रभावं वर्त्तित्वा बहुविधाः प्रज्ञाः सर्वैर्मनुष्यैः प्राप्तव्याः। न कदाचित् कस्यच्छिष्टस्य तिरस्कारः कर्त्तव्यः ॥ ४ ॥अत्र पुष्टिकर्त्तॄणां धार्मिकाणां च प्रशंसावर्णनादेतत्सूक्तार्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह संगतिरस्तीति बोध्यम् ॥इत्यष्टत्रिंशदुत्तरं शततमं सूक्तं द्वितीयो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. धार्मिक विद्वानांबरोबर मित्रत्वाने वागून सर्व माणसांनी पुष्कळ प्रकारची उत्तम प्रज्ञा प्राप्त करावी व कधीही सभ्य पुरुषाचा तिरस्कार करू नये. ॥ ४ ॥