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वा॒युर्यु॑ङ्क्ते॒ रोहि॑ता वा॒युर॑रु॒णा वा॒यू रथे॑ अजि॒रा धु॒रि वोळ्ह॑वे॒ वहि॑ष्ठा धु॒रि वोळ्ह॑वे। प्र बो॑धया॒ पुरं॑धिं जा॒र आ स॑स॒तीमि॑व। प्र च॑क्षय॒ रोद॑सी वासयो॒षस॒: श्रव॑से वासयो॒षस॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

vāyur yuṅkte rohitā vāyur aruṇā vāyū rathe ajirā dhuri voḻhave vahiṣṭhā dhuri voḻhave | pra bodhayā puraṁdhiṁ jāra ā sasatīm iva | pra cakṣaya rodasī vāsayoṣasaḥ śravase vāsayoṣasaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

वा॒युः। यु॒ङ्क्ते॒। रोहि॑ता। वा॒युः। अ॒रु॒णा। वा॒युः। रथे॑। अ॒जि॒रा। धु॒रि। वोळ्ह॑वे। वहि॑ष्ठा। धु॒रि। वोळ्ह॑वे। प्र। बो॒ध॒य॒। पुर॑म्ऽधिम्। जा॒रः। आ। स॒स॒तीम्ऽइ॑व। प्र। च॒क्ष॒य॒। रोद॑सी॒ इति॑। वा॒स॒य॒। उ॒षसः॒। श्रव॑से। वा॒स॒य॒। उ॒षसः॑ ॥ १.१३४.३

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:134» मन्त्र:3 | अष्टक:2» अध्याय:1» वर्ग:23» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:20» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर विद्वानों को कैसे वर्त्तना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वान् (धुरि) सबके आधारभूत जगत् में (वोढवे) पदार्थों के पहुँचाने को (वहिष्ठा) अतीव पहुँचानेवाला (वायुः) पवन (वोढवे) देशान्तर में पहुँचाने के लिये (धुरि) चलाने के मुख्य भाग में (रोहिता) लाल-लाल रङ्ग के अग्नि आदि पदार्थों को वा (वायुः) पवन (अरुणा) पदार्थों को पहुँचाने में समर्थ जल, धूआँ आदि पदार्थों को (वायुः) पवन (अजिराः) फेंकने योग्य पदार्थों को (रथे) रथ में (युङ्क्ते) जोड़ता है अर्थात् कलाकौशल से प्रेरणा को प्राप्त हुआ उन पदार्थों का सम्बन्ध करता है इससे आप (जारः) जाल्म पुरुष जैसे (ससतीमिव) सोती हुई स्त्री को जगावे वैसे (पुरन्धिम्) बहुत उत्तम बुद्धिमती स्त्री को (प्राबोधय) भली भाँति बोध कराओ, (रोदसी) प्रकाश और पृथिवी का (प्र, चक्षय) उत्तम व्याख्यान करो अर्थात् उनके गुणों को कहो, (उषसः) दाह आदि के करनेवाले पदार्थों अर्थात् अग्नि आदि को कलायन्त्रादिकों में (वासय) वसाओ स्थापन करो और (श्रवसे) सन्देशादि सुनने के लिये (उषसः) दिनों को (वासय) तार बिजुली की विद्या से स्थिर करो ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जो पवन के समान अच्छा यत्न करते और उत्तम धर्मात्मा के समान मनुष्यों को बोध कराते हैं, वे सूर्य्य और पृथिवी के समान प्रकाश और सहनशीलता से युक्त होते हैं ॥ ३ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्विद्वद्भिः कथं वर्त्तितव्यमित्याह ।

अन्वय:

हे विद्वन् धुरि वोढवे वहिष्ठा वायुर्वोढवे धुरि रोहिता वायुररुणा वायुरजिरा रथे युङ्क्त इति त्वं जारः ससतीमिव पुरन्धिं प्राबोधय रोदसी प्रचक्षय तद्गुणानाख्यापयोषसो वासय श्रवसे चोषसो वासय ॥ ३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (वायुः) पवन इव (युङ्क्ते) कलाकौशलेन प्रेरितः संपर्चयति (रोहिता) रोहितानि रक्तगुणविशिष्टान्यग्न्यादीनि द्रव्याणि (वायुः) सूक्ष्मः (अरुणा) पदार्थप्रापणसमर्थानि (वायु) स्थूलः पवनः (रथे) रमणीये याने (अजिरा) अजिराणि क्षेप्तुं गमयितुमनर्हाणि (धुरि) सर्वाधारे (वोढवे) वोढुम् अत्र। तुमर्थे तवेन्प्रत्ययः। (वहिष्ठा) अतिशयेन वोढा। अत्राकारादेशः। (धुरि) (वोढवे) वोढुं देशान्तरे वहनाय (प्र, बोधय) (पुरन्धिम्) बहुप्रज्ञम् (जारः) (आ) समन्तात् (ससतीमिव) यथा (सुप्ताम्) (प्र) (चक्षय) प्रख्यापय (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (वासय) कलायन्त्रादिषु स्थापय (उषसः) दाहादिकर्तॄन् पदार्थान् (श्रवसे) संदेशादि श्रवणाय (वासय) विद्युद्विद्यया स्थापय (उषसः) दिनानि ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। ये वायुवत्प्रयतन्त आप्तवज्जनान् प्रबोधयन्ति ते सूर्यवत्पृथिवीवच्च प्रकाशिता सोढारो जायन्ते ॥ ३ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जे वायूसारखा चांगला प्रयत्न करतात. उत्तम धर्मात्म्याप्रमाणे माणसांना बोध करवितात ते सूर्य व पृथ्वीसारखे प्रकाश व सहनशीलता यांनी युक्त होतात. ॥ ३ ॥