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व॒नोति॒ हि सु॒न्वन्क्षयं॒ परी॑णसः सुन्वा॒नो हि ष्मा॒ यज॒त्यव॒ द्विषो॑ दे॒वाना॒मव॒ द्विष॑:। सु॒न्वा॒न इत्सि॑षासति स॒हस्रा॑ वा॒ज्यवृ॑तः। सु॒न्वा॒नायेन्द्रो॑ ददात्या॒भुवं॑ र॒यिं द॑दात्या॒भुव॑म् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

vanoti hi sunvan kṣayam parīṇasaḥ sunvāno hi ṣmā yajaty ava dviṣo devānām ava dviṣaḥ | sunvāna it siṣāsati sahasrā vājy avṛtaḥ | sunvānāyendro dadāty ābhuvaṁ rayiṁ dadāty ābhuvam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

व॒नोति॑। हि। सु॒न्वन्। क्षय॑म्। परी॑णसः। सु॒न्वा॒नः। हि। स्म॒। यज॑ति। अव॑। द्विषः॑। दे॒वाना॑म्। अव॑। द्विषः॑। सु॒न्वा॒नः। इत्। सि॒सा॒स॒ति॒। स॒हस्रा॑। वा॒जी। अवृ॑तः। सु॒न्वा॒नाय॑। इन्द्रः॑। द॒दा॒ति॒। आ॒ऽभुव॑म्। र॒यिम्। द॒दा॒ति॒। आ॒ऽभुव॑म् ॥ १.१३३.७

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:133» मन्त्र:7 | अष्टक:2» अध्याय:1» वर्ग:22» मन्त्र:7 | मण्डल:1» अनुवाक:19» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर क्या करके और किसकी निवृत्ति कर मनुष्य समर्थ होते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - जो (इन्द्रः) सुख देनेवाला (सुन्वानाय) पदार्थों का सार निकालते हुए पुरुष को (आभुवम्) जिसमें अच्छे प्रकार सुख होता उस (रयिम्) धन को (ददाति) देता है वह (सुन्वानः) पदार्थों के सारों को प्रकट हुआ (अवृतः) प्रकट (वाजी) प्रशस्त ज्ञानवान् पुरुष (सहस्रा) हजारों (देवानाम्) विद्वानों के (अव, द्विषः) अति शत्रुओं को (इत्) ही (सिषासति) अलग करने को चाहता है जो (अव, द्विषः) अत्यन्त वैर करनेवालों को अलग करना चाहता है वह सबके लिये (आभुवम्) जिसमें उत्तम सुख हो उस धन को (ददाति) देता है और जो (हि) निश्चय से (सुन्वानः) पदार्थों के सार को सिद्ध करता हुआ (यजति) सङ्ग करता है (स्म) वही (परीणसः) बहुत पदार्थों और (क्षयम्) घर को (सुन्वन्) सिद्ध करता हुआ (हि) ही सुख (वनोति) माँगता है ॥ ७ ॥
भावार्थभाषाः - जो सब में मित्रता की भावना कराकर सबके शत्रुओं की निवृत्ति कराते हैं, वे सबके सुख करनेवाले होकर सबके लिये बहुत सुख दे सकते हैं ॥ ७ ॥इस सूक्त में श्रेष्ठों की पालना और दुष्टों की निवृत्ति से राज्य की स्थिरता का वर्णन है, इससे इस सूक्त में कहे हुए अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति है, यह जानना चाहिये ॥यह एक सौ तेंतीसवाँ सूक्त बाईसवाँ वर्ग और उन्नीसवाँ अनुवाक पूरा हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः किं कृत्वा किं निवार्य्य मनुष्याः समर्था जायन्त इत्याह ।

अन्वय:

य इन्द्रः सुन्वानायाभुवं रयिं ददाति स सुन्वानोऽवृतो वाजी सहस्रा देवानामवद्विष इत् सिषासति योऽवद्विषः सर्वस्मायाभुवं श्रियं ददाति यो हि सुन्वानो यजति स स्म परीणसः क्षयं सुन्वन् सन् हि सुखं वनोति ॥ ७ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (वनोति) याचते। अत्र व्यत्ययेन परस्मैपदम्। (हि) खलु (सुन्वन्) निष्पादयन् (क्षयम्) गृहम् (परीणसः) बहून् (सुन्वानः) निष्पादयन् (हि) यतः (स्म) एव। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (यजति) संगच्छते (अव) (द्विषः) द्वेष्ट्रीन् (देवानाम्) विदुषाम् (अव) (द्विषः) शत्रून् (सुन्वानः) अभिषवान् कुर्वन् (इत्) एव (सिषासति) सनितुं विभक्तुं मिच्छति (सहस्रा) सहस्राण्यसंख्यातानि (वाजी) प्रशस्तज्ञानवान् (अवृतः) अनावृतः (सुन्वानाय) अभिषवं कुर्वते (इन्द्रः) सुखप्रदाता (ददाति) (आभुवम्) यत्र समन्ताद्भवति सुखं तम्। अत्र घञर्थे कविधानमिति कः। (रयिम्) द्रव्यम् (ददाति) (आभुवम्) ॥ ७ ॥
भावार्थभाषाः - ये सर्वेषु मैत्रीं भावयित्वा सर्वेषां शत्रून्निवर्त्तन्ति ते सर्वेषां श्रेयस्करा भूत्वा सर्वेभ्यो बहूनि सुखानि दातुं शक्नुवन्ति ॥ ७ ॥।अत्र श्रेष्ठपालनदुष्टनिवारणाभ्यां राज्यस्थिरतावर्णनमुक्तमत एतत्सूक्तार्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह संगतिरस्तीति वेद्यम् ॥इति त्रयस्त्रिंशदुत्तरं शततमं सूक्तं द्वाविंशो वर्ग एकोनविंशोऽनुवाकश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे सर्वांमध्ये मित्रत्वाची भावना ठेवून सर्वांच्या शत्रूंचे निवारण करवितात ते श्रेयस्कर असून सर्वांना सुख देऊ शकतात. ॥ ७ ॥