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त्वं तमि॑न्द्र वावृधा॒नो अ॑स्म॒युर॑मित्र॒यन्तं॑ तुविजात॒ मर्त्यं॒ वज्रे॑ण शूर॒ मर्त्य॑म्। ज॒हि यो नो॑ अघा॒यति॑ शृणु॒ष्व सु॒श्रव॑स्तमः। रि॒ष्टं न याम॒न्नप॑ भूतु दुर्म॒तिर्विश्वाप॑ भूतु दुर्म॒तिः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tvaṁ tam indra vāvṛdhāno asmayur amitrayantaṁ tuvijāta martyaṁ vajreṇa śūra martyam | jahi yo no aghāyati śṛṇuṣva suśravastamaḥ | riṣṭaṁ na yāmann apa bhūtu durmatir viśvāpa bhūtu durmatiḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त्वम्। तम्। इ॒न्द्र॒। व॒वृ॒धा॒नः। अ॒स्म॒ऽयुः। अ॒मि॒त्र॒ऽयन्त॑म्। तु॒वि॒ऽजा॒त॒। मर्त्य॑म्। वज्रे॑ण। शू॒र॒। मर्त्य॑म्। ज॒हि। यः। नः॒। अ॒घ॒ऽयति॑। शृ॒णु॒ष्व। सु॒श्रवः॑ऽतमः। रि॒ष्टम्। न। याम॑न्। अप॑। भू॒तु॒। दुः॒ऽम॒तिः। विश्वा॑। अप॑। भू॒तु॒। दुः॒ऽम॒तिः ॥ १.१३१.७

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:131» मन्त्र:7 | अष्टक:2» अध्याय:1» वर्ग:20» मन्त्र:7 | मण्डल:1» अनुवाक:19» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर राजा और प्रजाजनों को किसको छोड़ क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (तुविजात) बहुतों में प्रसिद्ध (शूर) शत्रुओं को मारनेवाले (इन्द्र) विद्या और ऐश्वर्य्य से युक्त (सुश्रवस्तमः) अतीव सुन्दरता से सुननेहारे और (वावृधानः) बढ़ते हुए (अस्मयुः) हम लोगों में अपनी इच्छा करनेवाले (त्वम्) आप (वज्रेण) शस्त्र से (अमित्रयन्तम्) शत्रुता करते हुए (अर्त्यम्) मनुष्य को (जहि) मारो (यः) जो (नः) हम लोगों के लिये (अघायति) अपना दुष्कर्म चाहता है (तम्) उस (मर्त्यम्) मनुष्य को मारो और जो (यामन्) रात्रि में (दुर्मतिः) दुष्टमतिवाला मनुष्य (अप, भूतु) अप्रसिद्ध हो छिपे, उसको (रिष्टम्) दो मारनेवाले (न) जैसे मारें वैसे (जहि) मारो अर्थात् अत्यन्त दण्ड देओ जो (दुर्मतिः) दुष्टमति हो वह (विश्वा) समस्त हम लोगों से (अप, भूतु) छिपे दूर हो यह आप (शृणुष्व) सुनो ॥ ७ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो धार्मिक राजा और प्रजाजन हों, वे सब चतुराइयों से द्वेष वैर करने और पराया माल हरनेवाले दुष्टों को मार धर्म के अनुकूल राज्य की शिक्षा और बेखटक मार्ग कर विद्या की वृद्धि करें ॥ ७ ॥इस सूक्त में श्रेष्ठ और दुष्ट मनुष्यों का सत्कार और ताड़ना के वर्णन से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति है, यह जानना चाहिये ॥ यह एक सौ १३१ इकतीसवाँ सूक्त और बीसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुना राजप्रजाजनैः किं निवार्य्य किं कर्त्तव्यमित्याह ।

अन्वय:

हे तुविजात शूरेन्द्र सुश्रवस्तमो वावृधानोऽस्मयुस्त्वं वज्रेणामित्रयन्तं मर्त्यं जहि। यो नोऽघायति तं मर्त्यं जहि। यो यामन् दुर्मतिरभूतु तं रिष्टन्नेव जहि। या दुर्मतिः स्यात्सा विश्वाऽस्मत्तोऽपभूत्विति शृणुष्व ॥ ७ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (त्वम्) (तम्) जनम् (इन्द्र) विद्यैश्वर्य्याढ्य (वावृधानः) वर्धमानः (अस्मयुः) अस्मास्वात्मानमिच्छुः (अमित्रयन्तम्) शत्रूयन्तम् (तुविजात) तुविषु बहुषु प्रसिद्ध (मर्त्यम्) मनुष्यम् (वज्रेण) शस्त्रेण (शूर) शत्रूणां हिंसक (मर्त्यम्) मनुष्यम् (जहि) (यः) (नः) अस्मभ्यम् (अघायति) आत्मनोऽघमिच्छति (शृणुष्व) (सुश्रवस्तमः) अतिशयेन सुष्ठु शृणोति सः (रिष्टम्) हिंसितम् (न) इव (यामन्) यामनि (अप) (भूतु) भवतु (दुर्मतिः) दुष्टा मतिर्यस्य सः (विश्वा) अखिला (अप) (भूतु) (दुर्मतिः) दुष्टा चासौ मतिश्च दुर्मतिः ॥ ७ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। ये धार्मिका राजप्रजाजनास्ते सर्वाभिश्चातुर्य्यैर्द्वेषकारिपरस्वापहारिणो हत्वा धर्म्यं राज्यं प्रशास्य निर्भयान् मार्गान् कृत्वा विद्यावृद्धिं कुर्य्युः ॥ ७ ॥अत्र श्रेष्ठाऽश्रेष्ठमनुष्यसत्कारताडनवर्णनादेतत्सूक्तार्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम् ॥इत्येकत्रिंशदुत्तरं शततमं सूक्तं विंशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. धार्मिक राजा व प्रजा यांनी चतुरतेने द्वेष, वैर व दुसऱ्यांचे धन घेणाऱ्या दुष्टांचे हनन करून धर्मानुकूल राज्याचे शिक्षण व निष्कंटक मार्गाने विद्येची वृद्धी करावी. ॥ ७ ॥