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उ॒तो नो॑ अ॒स्या उ॒षसो॑ जु॒षेत॒ ह्य१॒॑र्कस्य॑ बोधि ह॒विषो॒ हवी॑मभि॒: स्व॑र्षाता॒ हवी॑मभिः। यदि॑न्द्र॒ हन्त॑वे॒ मृधो॒ वृषा॑ वज्रि॒ञ्चिके॑तसि। आ मे॑ अ॒स्य वे॒धसो॒ नवी॑यसो॒ मन्म॑ श्रुधि॒ नवी॑यसः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

uto no asyā uṣaso juṣeta hy arkasya bodhi haviṣo havīmabhiḥ svarṣātā havīmabhiḥ | yad indra hantave mṛdho vṛṣā vajriñ ciketasi | ā me asya vedhaso navīyaso manma śrudhi navīyasaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

उ॒तो इति॑। नः॒। अ॒स्याः। उ॒षसः॑। जु॒षेत॑। हि। अ॒र्कस्य॑। बो॒धि॒। ह॒विषः॑। हवी॑मऽभिः। स्वः॑ऽसाता। हवी॑मऽभिः। यत्। इ॒न्द्र॒। हन्त॑वे। मृधः॑। वृषा॑। व॒ज्रि॒न्। चिके॑तसि। आ। मे॒। अ॒स्य। वे॒धसः॑। नवी॑यसः। मन्म॑। श्रु॒धि॒। नवी॑यसः ॥ १.१३१.६

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:131» मन्त्र:6 | अष्टक:2» अध्याय:1» वर्ग:20» मन्त्र:6 | मण्डल:1» अनुवाक:19» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्य किससे क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (वज्रिन्) प्रशंसित शस्त्रयुक्त विद्वान् ! (इन्द्र) दुष्टों का संहार करनेवाले आप जैसे (अर्कस्य) सूर्य और (अस्याः) इस (उषसः) प्रभात वेला के प्रभाव से जन सचेत होते जागते हैं वैसे (नः) हम लोगों को (बोधि) सचेत करो (हि, उतो) और निश्चय से (स्वर्षाता) सुखों के अलग-अलग करने में (हवीमभिः) स्पर्द्धा करने योग्य कामों के समान (हवीमभिः) प्रशंसा के योग्य कामों से (हविषः) देने योग्य पदार्थ का (जुषेत) सेवन करो (यत्) जो (वृषा) बैल के समान बलवान् आप (मृधः) संग्रामों में स्थित शत्रुओं को (हन्तवे) मारने को (चिकेतसि) जानो (नवीयसः) अतीव नवीन विद्या पढ़नेवाले (वेधसः) बुद्धिमान् (मे) मुझ विद्यार्थी और (अस्य) इस (नवीयसः) अत्यन्त नवीन पढ़ानेवाले विद्वान् के (मन्म) विज्ञान उत्पन्न करनेवाले शास्त्र को (आश्रुधि) अच्छे प्रकार सुनो ॥ ६ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य से प्रकट हुई प्रभात वेला से जागे हुए जन सूर्य के उजेले में अपने-अपने व्यवहारों का आरम्भ करते हैं, वैसे विद्वानों से सुबोध किये मनुष्य विशेष ज्ञान के प्रकाश में अपने-अपने कामों को करते हैं। जो दुष्टों की निवृत्ति और श्रेष्ठों की उत्तम सेवा वा नवीन पढ़े हुए विद्वानों के निकट से विद्या का ग्रहण करते हैं, वे चाहे हुए पदार्थ की प्राप्ति में सिद्ध होते हैं ॥ ६ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्याः केन किं कुर्युरित्याह ।

अन्वय:

हे वज्रिन्निन्द्र भवान् यथाऽर्कस्यास्या उषसश्च प्रभावेण जना बुद्ध्यन्ते तथा नोऽस्मान् बोधि हि किलोतो स्वर्षाता हवीमभिर्हविषो जुषेत यद्यो वृषा त्वं मृधो हन्तवे चिकेतसि नवीयसो वेधसो मेऽस्य नवीयसो मन्माश्रुधि ॥ ६ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (उतो) अपि (नः) अस्मान् (अस्याः) (उषसः) प्रातःकालस्य मध्ये (जुषेत) सेवेत (हि) खलु (अर्कस्य) सूर्यस्य (बोधि) बोधय (हविषः) दातुमर्हस्य (हवीमभिः) आह्वातुमर्हैः कर्मभिः (स्वर्षाता) सुखानां विभागे। अत्र सुपां सुलुगिति ङेर्डा। (हवीमभिः) स्तोतुमर्हैः (यत्) ये (इन्द्र) दुष्टविदारक (हन्तवे) हन्तुम्। अत्र तवेन् प्रत्ययः। (मृधः) संग्रामस्थान् शत्रून्। मृध इति संग्रामना०। निघं० २। १७। (वृषा) वृषेव बलिष्ठः (वज्रिन्) प्रशस्तशस्त्रयुक्त (चिकेतसि) जानीयाः (आ) (मे) मम (अस्य) (वेधसः) मेधाविनः (नवीयसः) अतिशयेन नवस्य नवीनविद्याध्येतुः (मन्म) विज्ञानजनकं शास्त्रम् (श्रुधि) शृणु (नवीयसः) अतिशयेन नवाऽध्यापकस्य ॥ ६ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्योत्पन्नयोषसा प्रबुद्धजनाः प्रकाशे स्वान् स्वान् व्यवहाराननुतिष्ठन्ति तथा विद्वद्भिरसुबोधितां नरा विज्ञानप्रकाशे स्वानि स्वानि कर्माणि कुर्वन्ति ये दुष्टान्निवार्य श्रेष्ठान्संसेव्य नूतनाऽधीतविदुषां सकाशाद्विद्या गृह्णन्ति तेऽभीष्टप्राप्तौ सिद्धा जायन्ते ॥ ६ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे पहाट झाल्यावर जागे झालेले लोक सूर्यप्रकाशात आपला व्यवहार सुरू करतात, तशी विद्वानांकडून सुबोध झालेली माणसे विशेष ज्ञानाने आपापल्या कामाचा आरंभ करतात. जे दुष्टांचे निवारण व श्रेष्ठांची उत्तम सेवा करतात. नवीन शिकलेल्या विद्वानाजवळून विद्या ग्रहण करतात त्यांना अभीष्ट प्राप्ती होते. ॥ ६ ॥