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आदित्ते॑ अ॒स्य वी॒र्य॑स्य चर्किर॒न्मदे॑षु वृषन्नु॒शिजो॒ यदावि॑थ सखीय॒तो यदावि॑थ। च॒कर्थ॑ का॒रमे॑भ्य॒: पृत॑नासु॒ प्रव॑न्तवे। ते अ॒न्याम॑न्यां न॒द्यं॑ सनिष्णत श्रव॒स्यन्त॑: सनिष्णत ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ād it te asya vīryasya carkiran madeṣu vṛṣann uśijo yad āvitha sakhīyato yad āvitha | cakartha kāram ebhyaḥ pṛtanāsu pravantave | te anyām-anyāṁ nadyaṁ saniṣṇata śravasyantaḥ saniṣṇata ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आत्। इत्। ते॒। अ॒स्य। वी॒र्य॑स्य। च॒र्कि॒र॒न्। मदे॑षु। वृ॒ष॒न्। उ॒शिजः॑। यत्। आवि॑थ। स॒खि॒ऽय॒तः। यत्। आवि॑थ। च॒कर्थ॑। का॒रम्। ए॒भ्यः॒। पृत॑नासु। प्रऽव॑न्तवे। ते। अ॒न्याम्ऽअ॑न्याम्। न॒द्य॑म्। स॒नि॒ष्ण॒त॒। श्र॒व॒स्यन्तः॑। स॒नि॒ष्ण॒त॒ ॥ १.१३१.५

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:131» मन्त्र:5 | अष्टक:2» अध्याय:1» वर्ग:20» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:19» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर प्रजा की रक्षा करनेहारे क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (वृषन्) आनन्द को वर्षाते हुए विद्वान् ! (यत्) जो धर्मात्मा जन (ते) आपके (अस्य) इस (वीर्यस्य) पराक्रम के प्रभाव से (मदेषु) आनन्दों में वर्त्तमान (उशिजः) धर्म की कामना करते हुए जन (चर्किरन्) दुष्टों को निरन्तर दूर करें वा (श्रवस्यन्तः) अपने को अन्न की इच्छा करते हुए (प्रवन्तवे) अच्छे विभाग करने को (पृतनासु) मनुष्यों में (सनिष्णत) सेवन करें अर्थात् (अन्यामन्याम्) अलग अलग (नद्यम्) नदी को जैसे मेघ वैसे (कारम्) जो किया जाता उस कार का (सनिष्णत) सेवन करें उन (सखीयतः) मित्र के समान आचरण करते हुए जनों को आप (आविथ) पालो (यत्) जिस कारण जिनको (आविथ) पालो इससे उनको पुरुषार्थवाले (चकर्थ) करो (एभ्यः) इन धार्मिक सज्जनों से सब राज्य की पालना करे और जो आप के कर्मचारी पुरुष हों (ते) वें भी धर्म से (आदित्) ही प्रजाजनों की पालना करें ॥ ५ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य प्रजा की रक्षा करने में अधिकार पाये हुए हैं, वे धर्म के साथ प्रजा पालने की इच्छा करते हुए उत्तम यत्नवान् हों ॥ ५ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः प्रजारक्षकाः किं कुर्युरित्याह ।

अन्वय:

हे वृषन् विद्वन् यद्य आप्तास्ते तवास्य वीर्यस्य प्रभावेण मदेषु वर्त्तमाना उशिजो धर्मं कामयमाना दुष्टांश्चर्किरन् श्रवस्यन्तः सन्तः प्रवन्तवे पृतनासु सनिष्णत। अन्यामन्यां नद्यं मेघ इव कारं सनिष्णत तान् सखीयतो जनांस्त्वमाविथ यद्यतो यानाविथ तान्पुरुषार्थवतश्चकर्थैभ्यः सर्वं राज्यमाविथ यद्ये च ते भृत्यास्तेऽपि धर्मेणादित् प्रजाः पालयेयुः ॥ ५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (आत्) (इत्) एव (ते) तव (अस्य) (वीर्यस्य) पराक्रमस्य (चर्किरन्) भृशं विक्षिप्येयुः (मदेषु) हर्षेषु (वृषन्) आनन्दं वर्षयन् (उशिजः) धर्मं कामयमानाः (यत्) ये (आविथ) रक्षेः (सखीयतः) सखेवाचरतः (यत्) यतः (आविथ) पालय (चकर्थ) कुरु (कारम्) क्रियते यस्तम् (एभ्यः) धार्मिकेभ्यः (पृतनासु) मनुष्येषु। पृतना इति मनुष्यना०। निघं० २। ३। (प्रवन्तवे) प्रविभागं कर्त्तुम् (ते) (अन्यामन्याम्) भिन्नाम् भिन्नाम् (नद्यम्) नदीम् (सनिष्णत) संभजेयुः (श्रवस्यन्तः) आत्मनः श्रवोऽन्नमिच्छन्तः (सनिष्णत) संभजन्तु ॥ ५ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मनुष्याः प्रजारक्षणेऽधिकृतास्ते धर्मेण प्रजापालनं चिकीर्षन्तः प्रयतेरन् ॥ ५ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. ज्या माणसांना प्रजेचे रक्षण करण्याचा अधिकार मिळालेला असतो त्यांनी धर्माने प्रजेचे पालन करण्याची इच्छा बाळगून उत्तम प्रयत्न करावेत. ॥ ५ ॥