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सूर॑श्च॒क्रं प्र बृ॒हज्जा॒त ओज॑सा प्रपि॒त्वे वाच॑मरु॒णो मु॑षायतीशा॒न आ मु॑षायति। उ॒शना॒ यत्प॑रा॒वतोऽज॑गन्नू॒तये॑ कवे। सु॒म्नानि॒ विश्वा॒ मनु॑षेव तु॒र्वणि॒रहा॒ विश्वे॑व तु॒र्वणि॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sūraś cakram pra vṛhaj jāta ojasā prapitve vācam aruṇo muṣāyatīśāna ā muṣāyati | uśanā yat parāvato jagann ūtaye kave | sumnāni viśvā manuṣeva turvaṇir ahā viśveva turvaṇiḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सूरः॑। च॒क्रम्। प्र। बृ॒ह॒त्। जा॒तः। ओज॑सा। प्र। पि॒त्वे। वाच॑म्। अ॒रु॒णः। मु॒षा॒य॒ति॒। ई॒शा॒नः। आ। मु॒षा॒य॒ति॒। उ॒शना॑। यत्। प॒रा॒ऽवतः॑। अज॑गन्। ऊ॒तये॑। क॒वे॒। सु॒म्नानि॑। विश्वा॑। मनु॑षाऽइव। तु॒र्वणिः। अहा॑। विश्वा॑ऽइव। तु॒र्वणिः॑ ॥ १.१३०.९

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:130» मन्त्र:9 | अष्टक:2» अध्याय:1» वर्ग:19» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:19» मन्त्र:9


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर इस संसार में विद्वानों को कैसा होना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (कवे) विद्वान् ! (यत्) जो (ओजसा) अपने बल से (अरुणः) लालरङ्ग युक्त (तुर्वणिः) मेघ को छिन्न-भिन्न करता और (जातः) प्रकट होता हुआ (सूरः) सूर्य्यमण्डल जैसे (विश्वेवाहा) सब दिनों को वा (प्रपित्वे) उत्तमगण से (बृहत्) महान् (चक्रम्) चाक के समान वर्त्तमान जगत् को (प्र) प्रकट करता वैसे और (तुर्वणिः) दुष्टों की हिंसा करनेवाले उत्तमोत्तम (मनुषेव) मनुष्य के समान (विश्वा) समस्त (सुम्नानि) सुखों और (वाचम्) वाणी को (आ) अच्छे प्रकार प्रकट करें वा सूर्य जैसे (मुषायति) खण्डन करनेवाले के समान आचरण करता वैसे (ईशानः) समर्थ होते हुए (उशना) विद्यादि गुणों से कान्तियुक्त आप (ऊतये) रक्षा आदि व्यवहार के लिये (परावतः) परे अर्थात् दूर से (अजगत्) प्राप्त हों और दुष्टों को (मुषायति) खण्ड-खण्ड करें, सो सबको सत्कार करने योग्य हैं ॥ ९ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जो सूर्य के तुल्य विद्या, विनय और धर्म का प्रकाश करनेवाले सबकी उन्नति के लिये अच्छा यत्न करते हैं, वे आप भी उन्नतियुक्त होते हैं ॥ ९ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्विद्वद्भिरत्र कथं भवितव्यमित्याह ।

अन्वय:

हे कवे यद्य ओजसाऽरुणस्तुर्वणिर्जातः सूरो विश्वेवाहा प्रपित्वे बृहच्चक्रं प्रजनयतीव तुर्वणिर्मनुषेव विश्वा सुम्नानि वाचमाजनयतु मुषायतीव वेशान उशना भवानूतये परावतोऽजगन् दुष्टान् मुषायति स सर्वैः सत्कर्त्तव्यः ॥ ९ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सूरः) सूर्यः (चक्रम्) चक्रवद्वर्त्तमानं जगत् पृथिव्यादिकम् (प्र) (बृहत्) (जातः) प्रकटः सन् (ओजसा) स्वबलेन (प्रपित्वे) उत्तरस्मिन् (वाचम्) (अरुणः) रक्तवर्णः (मुषायति) मुषः खण्डक इवाचरति (ईशानः) शक्तिमान् सन् (आ) (मुषायति) (उशना) (यत्) यः (परावतः) दूरतः (अजगन्) गच्छेत्। अत्र लङि तिपि बहुलं छन्दसीति शपः श्लुः, मो नो धातोरिति मस्य नः। (ऊतये) रक्षणाद्याय (कवे) विद्वन् (सुम्नानि) सुखानि (विश्वा) सर्वाणि (मनुषेव) मनुष्यवत् (तुर्वणिः) हिंसकः (अहा) दिनानि (विश्वेव) यथा सर्वाणि (तुर्वणिः) हिंसन् ॥ ९ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। ये सूर्यवद्विद्याविनयधर्मप्रकाशकाः सर्वेषामुन्नतये प्रयतन्ते ते स्वयमप्युन्नता भवन्ति ॥ ९ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जे सूर्याप्रमाणे विद्या, विनय व धर्माचा प्रकाश करणारे असून सर्वांच्या उन्नतीसाठी चांगला प्रयत्न करतात. ते स्वतःचीही उन्नती करून घेतात. ॥ ९ ॥