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इ॒मां ते॒ वाचं॑ वसू॒यन्त॑ आ॒यवो॒ रथं॒ न धीर॒: स्वपा॑ अतक्षिषुः सु॒म्नाय॒ त्वाम॑तक्षिषुः। शु॒म्भन्तो॒ जेन्यं॑ यथा॒ वाजे॑षु विप्र वा॒जिन॑म्। अत्य॑मिव॒ शव॑से सा॒तये॒ धना॒ विश्वा॒ धना॑नि सा॒तये॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

imāṁ te vācaṁ vasūyanta āyavo rathaṁ na dhīraḥ svapā atakṣiṣuḥ sumnāya tvām atakṣiṣuḥ | śumbhanto jenyaṁ yathā vājeṣu vipra vājinam | atyam iva śavase sātaye dhanā viśvā dhanāni sātaye ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इ॒माम्। ते॒। वाच॑म्। व॒सु॒ऽयन्तः॑। आ॒यवः॑। रथ॑म्। न। धीरः॑। सु॒ऽअपाः॑। अ॒त॒क्षि॒षुः॒। सु॒म्नाय॑। त्वाम्। अ॒त॒क्षि॒षुः॒। शु॒म्भन्तः॑। जेन्य॑म्। यथा॑। वाजे॑षु। वि॒प्र॒। वा॒जिन॑म्। अत्य॑म्ऽइव। शव॑से। सा॒तये॑। धना॑। विश्वा॑। धना॑नि। सा॒तये॑ ॥ १.१३०.६

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:130» मन्त्र:6 | अष्टक:2» अध्याय:1» वर्ग:19» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:19» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्य किससे क्या पाकर कैसे होते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (विप्र) मेघावी धीर बुद्धिवाले जन ! जिन (ते) आपके निकट से (इमाम्) इस (वाचम्) विद्या, धर्म और सत्ययुक्त वाणी को प्राप्त (आयवः) विद्वान् जन (वसूयन्तः) अपने को विज्ञान आदि धन चाहते हुए (स्वपाः) जिसके उत्तम धर्म के अनुकूल काम वह (धीरः) धीरपुरुष (रथम्) प्रंशसित रमण करने योग्य रथ को (न) जैसे वैसे (अतिक्षषुः) सूक्ष्मबुद्धि को स्वीकार करें वा (शुम्भन्तः) शोभा को प्राप्त हुए (यथा) जैसे (वाजेषु) संग्रामों में (जेन्यम्) जिससे शत्रुओं को जीतते उस (वाजिनम्) अतिचतुर वा संग्रामयुक्त पुरुष को (अत्यमिव) घोड़ा के समान (शवसे) बल के लिये और (सातये) अच्छे प्रकार विभाग करने के लिये (धनानि) द्रव्य आदि पदार्थों के समान (विश्वा) समस्त (धना) विद्या आदि पदार्थों को प्राप्त होकर (सुम्नाय) सुख और (सातये) संभोग के लिये। (त्वाम्) आपको (अतक्षिषुः) उत्तमता से स्वीकार करें वा अपने गुणों से ढाँपें, वे सुखी होते हैं ॥ ६ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो उपदेश करनेवाले धर्मात्मा विद्वान् जन से समस्त विद्याओं को पाकर विस्तारयुक्तबुद्धि अर्थात् सब विषयों में बुद्धि फैलानेहारे होते हैं, वे समग्र ऐश्वर्य को पाकर, रथ, घोड़ा और धीर पुरुष के समान धर्म के अनुकूल मार्ग को प्राप्त होकर कृतकृत्य होते हैं ॥ ६ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्याः कस्मात्किं प्राप्य कीदृशा भवन्तीत्याह ।

अन्वय:

हे विप्र यस्य ते तव सकाशादिमां वाचं प्राप्ता आयवो वसूयन्तः स्वपा धीरो रथं नातक्षिषुः शुम्भन्तो यथा वाजेषु जेन्यं वाजिनमत्यमिव शवसे सातये धनानीव विश्वा धना प्राप्य सुम्नाय सातये त्वामतक्षिषुस्ते सुखिनो जायन्ते ॥ ६ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (इमाम्) (ते) तव सकाशात् (वाचम्) विद्याधर्मसत्याऽन्वितां वाणीम् (वसूयन्तः) आत्मनो वसूनि विज्ञानादीनि धनानीच्छन्तः (आयवः) विद्वांसः (रथम्) प्रशस्तं रमणीयं यानम् (न) इव (धीरः) ध्यानयुक्तः (स्वपाः) शोभनानि धर्म्याण्यपांसि कर्माणि यस्य सः (अतक्षिषुः) संवृणुयुः। तक्ष त्वचने, त्वचनं संवरणमिति। (सुम्नाय) सुखाय (त्वां) त्वाम् (अतक्षिषुः) सूक्ष्मधियं संपादयन्तु (शुम्भन्तः) प्राप्तशोभाः (जेन्यम्) जयति येन तम् (यथा) येन प्रकारेण (वाजेषु) संग्रामेषु (विप्र) मेधाविन् (वाजिनम्) (अत्यमिव) यथाऽश्वम् (शवसे) बलाय (सातये) संविभक्तये (धना) द्रव्याणि (विश्वा) सर्वाणि (धनानि) (सातये) संभोगाय ॥ ६ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। येऽनूचानादाप्ताद्विदुषोऽखिला विद्याः प्राप्य विस्तृतधियो जायन्ते ते समग्रमैश्वर्य्यं प्राप्य रथवदश्ववद्धीरवद्धर्म्यमार्गं गत्वा कृतकृत्या जायन्ते ॥ ६ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे उपदेशक धार्मिक विद्वानांकडून संपूर्ण विद्या प्राप्त करून विस्तारयुक्त बुद्धी अर्थात सर्व विषयांत बुद्धीचा विस्तार करतात ते संपूर्ण ऐश्वर्य प्राप्त करून रथ, घोडा व धीर पुरुषाप्रमाणे धर्मानुकूल मार्गाला प्राप्त करतात व कृतकृत्य होतात. ॥ ६ ॥