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व॒नेम॒ तद्धोत्र॑या चि॒तन्त्या॑ व॒नेम॑ र॒यिं र॑यिवः सु॒वीर्यं॑ र॒ण्वं सन्तं॑ सु॒वीर्य॑म्। दु॒र्मन्मा॑नं सु॒मन्तु॑भि॒रेमि॒षा पृ॑चीमहि। आ स॒त्याभि॒रिन्द्रं॑ द्यु॒म्नहू॑तिभि॒र्यज॑त्रं द्यु॒म्नहू॑तिभिः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

vanema tad dhotrayā citantyā vanema rayiṁ rayivaḥ suvīryaṁ raṇvaṁ santaṁ suvīryam | durmanmānaṁ sumantubhir em iṣā pṛcīmahi | ā satyābhir indraṁ dyumnahūtibhir yajatraṁ dyumnahūtibhiḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

व॒नेम॑। तत्। होत्र॑या। चि॒तन्त्या॑। व॒नेम॑। र॒यिम्। र॒यि॒ऽवः॒। सु॒ऽवीर्य॑म्। र॒ण्वम्। सन्त॑म्। सु॒ऽवीर्य॑म्। दुः॒ऽमन्मा॑नम्। सु॒मन्तु॑ऽभिः। आ। ई॒म्। इ॒षा। पृ॒ची॒म॒हि॒। आ। स॒त्याभिः॑। इन्द्र॑म्। द्यु॒म्नहू॑तिऽभिः। यज॑त्रम्। द्यु॒म्नहू॑तिऽभिः ॥ १.१२९.७

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:129» मन्त्र:7 | अष्टक:2» अध्याय:1» वर्ग:17» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:19» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर माता आदि को सन्तान कैसे उपदेशों से समझाने चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (रयिवः) धनवान् ! जैसे हम लोग (होत्रया) ग्रहण करने योग्य (चितन्त्या) चेतानेवाली बुद्धिमती (=बुद्धिमानी) से जिस ज्ञान का (वनेम) अच्छे प्रकार सेवन करें वा (सुवीर्यम्) श्रेष्ठ पराक्रमयुक्त (रयिम्) धन तथा (सन्तम्) वर्त्तमान (रण्वम्) उपदेश करनेवाले (सुवीर्य्यम्) विद्या और धर्म से उत्तम आत्मा के बल का (वनेम) सेवन करें वा (सुमन्तुभिः) उत्तम विद्यायुक्त पुरुषों और (ईम्) पाने योग्य (इषा) इच्छा से (दुर्मन्मानम्) दुष्ट जन मान करनेहारे को जो मारनेवाला उसका (आ, पृचीमहि) अच्छे प्रकार सम्बन्ध करें तथा (द्युम्नहूतिभिः) धन वा यश की बातचीतों से (यजत्रम्) अच्छे प्रकार सङ्ग करने योग्य व्यवहार के समान (सत्याभिः) सत्य आचरणयुक्त (द्युम्नहूतिभिः) धनविषयक बातों से (इन्द्रम्) परम ऐश्वर्य का (आ) अच्छे प्रकार सम्बन्ध करें वैसे (तत्) उक्त समस्त व्यवहार को आप भजो और उससे सम्बन्ध करो ॥ ७ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। माता और पिता आदि को वा विद्वानों को चाहिये कि अपने सन्तानों को इस प्रकार उपदेश करें कि जो हमारे धर्म के अनुकूल काम हैं, वे आचरण करने योग्य किन्तु और काम आचरण करने योग्य नहीं, ऐसे सत्याचरणों और परोपकार से निरन्तर ऐश्वर्य्य की उन्नति करनी चाहिये ॥ ७ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मात्रादिभिः सन्तानाः कथमुपदेष्टव्या इत्याह ।

अन्वय:

हे रयिवो यथा वयं होत्रया चितन्त्या यद् ज्ञानं वनेम सुवीर्यं रयिं सन्तं रण्वं सुवीर्यं च वनेम सुमन्तुभिरीमिषा च दुर्मन्मानमापृचीमहि द्युम्नहूतिभिर्यजत्रमिव सत्याभिद्युम्नहूतिभिरिन्द्रमापृचीमहि तथा तदेतत्सर्वे त्वं वन पृङ्क्ष्व ॥ ७ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (वनेम) संभजेम (तत्) विज्ञानम् (होत्रया) आदातुमर्हया (चितन्त्या) बुद्धिमत्या (वनेम) विभज्य दद्याम (रयिम्) श्रियम् (रयिवः) श्रीमन् (सुवीर्यम्) श्रेष्ठपराक्रमम् (रण्वम्) उपदेशकम् (सन्तम्) वर्त्तमानम् (सुवीर्यम्) विद्याधर्माभ्यां सुष्ठ्वात्मबलम् (दुर्मन्मानम्) यो दुष्टं मन्यते स दुर्मन् यस्तं मिनाति तम् (सुमन्तुभिः) शोभनविद्यायुक्तैः (आ) समन्तात् (ईम्) प्राप्तव्यया (इषा) इच्छया (पृचीमहि) सम्बन्धीयाम (आ) (सत्याभिः) सत्याचरणान्विताभिः (इन्द्रम्) परमैश्वर्यम् (द्युम्नहूतिभिः) द्युम्नस्य धनस्य यशसो वाऽऽह्वानैः (यजत्रम्) सङ्गन्तव्यम् (द्युम्नहूतिभिः) ॥ ७ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मातापित्रादिभिर्विद्वद्भिर्वा स्वसन्ताना इत्थमुपदेष्टव्या यान्यस्माकं धर्म्याणि कर्माणि तान्याचरणीयानि नो इतराणि एवं सत्याचरणैः परोपकारेणैश्वर्यं सततमुन्नेयम् ॥ ७ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माता व पिता इत्यादींनी व विद्वानांनी आपल्या संतानांना या प्रकारचा उपदेश करावा की आमचे जे काम धर्मानुकूल आहे त्यांचे आचरण करा; परंतु अयोग्य कामाचे आचरण करू नका. असे सत्याचरण व परोपकार करून सदैव ऐश्वर्य वाढवावे. ॥ ७ ॥