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नि षू न॒माति॑मतिं॒ कय॑स्य चि॒त्तेजि॑ष्ठाभिर॒रणि॑भि॒र्नोतिभि॑रु॒ग्राभि॑रुग्रो॒तिभि॑:। नेषि॑ णो॒ यथा॑ पु॒राने॒नाः शू॑र॒ मन्य॑से। विश्वा॑नि पू॒रोरप॑ पर्षि॒ वह्नि॑रा॒सा वह्नि॑र्नो॒ अच्छ॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ni ṣū namātimatiṁ kayasya cit tejiṣṭhābhir araṇibhir notibhir ugrābhir ugrotibhiḥ | neṣi ṇo yathā purānenāḥ śūra manyase | viśvāni pūror apa parṣi vahnir āsā vahnir no accha ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

नि। सु। न॒म॒। अति॑ऽमतिम्। कय॑स्य। चि॒त्। तेजि॑ष्ठाभिः। अ॒रणि॑ऽभिः। न। ऊ॒तिऽभिः॑। उ॒ग्राभिः॑। उ॒ग्र॒। ऊ॒तिऽभिः॑। नेषि॑। नः॒। यथा॑। पु॒रा। अ॒ने॒नाः। शू॒र॒। मन्य॑से। विश्वा॑नि। पू॑रोः। अप॑। प॒र्षि॒। वह्निः॑। आ॒सा। वह्निः॑। नः॒। अच्छ॑ ॥ १.१२९.५

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:129» मन्त्र:5 | अष्टक:2» अध्याय:1» वर्ग:16» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:19» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

इस संसार में कौन सुख का देनेवाला होता है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (उग्र) तेजस्वी (शूर) दुष्टों को मारनेवाले विद्वान् ! (तेजिष्ठाभिः) अतीव प्रातपयुक्त (अरणिभिः) सुख देनेवाली (उग्राभिः) तीव्र (ऊतिभिः) रक्षा आदि क्रियाओं (न) के समान (ऊतिभिः) रक्षाओं से (अतिमतिम्) अत्यन्त विचारवाली बुद्धि को (नि, नम) नमो अर्थात् नम्रता के साथ वर्त्तो वा (यथा) जैसे (अनेनाः) पापरहित मनुष्य (पुरा) पहिले उत्तम कामों की प्राप्ति करता वैसे (नः) हम लोगों को आप (मन्यसे) जानते और (सु, नेषि) सुन्दरता से अच्छे कामों को प्राप्त कराते वा (आसा) अपने पास (वह्निः) पहुँचानेवाले के समान (नः) हमको (अच्छ, पर्षि) अच्छे सींचते वा (कयस्य) विशेष ज्ञान देने और (पूरोः) पूरे विद्वान् मनुष्य के (चित्) भी (वह्निः) पहुँचानेवाले आप (विश्वानि) समग्र दुःखों को (अप) दूर करते हो सो आप हम लोगों के सेवन करने योग्य हो ॥ ५ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो मनुष्यों की बुद्धि को उत्तम रक्षा से बढ़ा कर पाप कर्मों में अश्रद्धा उत्पन्न करता, वही सभों को सुखों को पहुँचा सकता है ॥ ५ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

कोऽत्र सुखदायी भवतीत्याह ।

अन्वय:

हे उग्र शूर विद्वंस्त्वं तेजिष्ठाभिररणिभिरुग्राभिरूतिभिर्नोतिभिरतिमतिं विनम। यथऽनेनाः पुरा नयति तथा नो मन्यसे सुनेष्यासा वह्निरिव नोऽच्छ पर्षि कयस्य पुरोश्चित् वह्निस्त्वं विश्वानि दुःखान्यपनेषि स त्वमस्माभिः सेवनीयोऽसि ॥ ५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (नि) (सु) शोभने (नम) नम्रो भव (अतिमतिम्) अतिशयिता चासौ मतिश्च ताम् (कयस्य) विज्ञातुः (चित्) अपि (तेजिष्ठाभिः) अतिशयेन तेजस्विनीभिः (अरणिभिः) सुखप्रापिकाभिः (न) इव (ऊतिभिः) रक्षणाद्याभिः (उग्राभिः) तीव्राभिः (उग्र) तेजस्विन् (ऊतिभिः) रक्षणादिभिः (नेषि) (नः) अस्मान् (यथा) येन प्रकारेण (पुरा) पूर्वम् (अनेनाः) अविद्यमानमेनः पापं यस्य सः (शूर) दुष्टहिंसक (मन्यसे) जानासि (विश्वानि) सर्वाणि (पूरोः) विदुषो मनुष्यस्य। पूरव इति मनुष्यना०। निघं० २। ३। (अप) (पर्षि) सिञ्चसि (वह्निः) वोढा (आसा) अन्तिके (वह्निः) वोढा (नः) अस्मान् (अच्छ) शोभने ॥ ५ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। यो मनुष्याणां बुद्धिं सुरक्षया वर्द्धयित्वा पापेष्वश्रद्धां जनयति स एव सर्वान् सुखानि नेतुं शक्नोति ॥ ५ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जो माणसाच्या बुद्धीचे उत्तम रक्षण करून वृद्धी करतो व पापामध्ये अश्रद्धा उत्पन्न करतो. तोच सर्वांना सुख देऊ शकतो. ॥ ५ ॥