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पा॒हि न॑ इन्द्र सुष्टुत स्रि॒धो॑ऽवया॒ता सद॒मिद्दु॑र्मती॒नां दे॒वः सन्दु॑र्मती॒नाम्। ह॒न्ता पा॒पस्य॑ र॒क्षस॑स्त्रा॒ता विप्र॑स्य॒ माव॑तः। अधा॒ हि त्वा॑ जनि॒ता जीज॑नद्वसो रक्षो॒हणं॑ त्वा॒ जीज॑नद्वसो ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pāhi na indra suṣṭuta sridho vayātā sadam id durmatīnāṁ devaḥ san durmatīnām | hantā pāpasya rakṣasas trātā viprasya māvataḥ | adhā hi tvā janitā jījanad vaso rakṣohaṇaṁ tvā jījanad vaso ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

पा॒हि। नः॒। इ॒न्द्र॒। सु॒ऽस्तु॒त॒। स्रि॒धः। अ॒व॒ऽया॒ता। सद॒म्। इत्। दुः॒ऽम॒ती॒नाम्। दे॒वः। सन्। दुः॒ऽम॒ती॒नाम्। ह॒न्ता। पा॒पस्य॑। र॒क्षसः॑। त्रा॒ता। विप्र॑स्य। माव॑तः। अध॑। हि। त्वा॒। ज॒नि॒ता। जीज॑नत्। व॒सो॒ इति॑। र॒क्षः॒ऽहन॑म्। त्वा॒। जीज॑नत्। व॒सो॒ इति॑ ॥ १.१२९.११

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:129» मन्त्र:11 | अष्टक:2» अध्याय:1» वर्ग:17» मन्त्र:6 | मण्डल:1» अनुवाक:19» मन्त्र:11


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर विद्वानों को क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (सुष्टुत) उत्तम प्रशंसा को प्राप्त (इन्द्र) सभापति ! (अवयाता) विरुद्ध मार्ग को जाते और (देवः) सत्य न्याय की कामना अर्थात् खोज करते (सन्) हुए (दुर्मतीनाम्) दुष्ट मनुष्यों के (सदम्) स्थान के (इत्) समान (दुर्मतीनाम्) दुष्ट बुद्धिवाले मनुष्यों के प्रचार का विनाश कर (स्रिधः) दुःख के हेतु पाप से (नः) हम लोगों को (पाहि) रक्षा करो। हे (वसो) सज्जनों में वसनेहारे (जनिता) उत्पन्न करनेहारा पिता, गुरु जिस (रक्षोहणम्) दुष्टों के नाश करनेहारे (त्वा) आपको (जीजनत्) उत्पन्न करे। वा हे (वसो) विद्याओं में वास अर्थात् प्रवेश करानेहारे ! जिन रक्षा करनेवाले (त्वा) आपको (जीजनत्) उत्पन्न करे सो (हि) ही आप (अथ) इसके अनन्तर (पापस्य) पाप आचरण करनेवाले (रक्षसः) राक्षस अर्थात् औरों को पीड़ा देनेहारे के (हन्ता) मारनेवाले तथा (मावतः) मेरे समान (विप्रस्य) बुद्धिमान् धर्मात्मा पुरुष की (त्राता) रक्षा करनेवाले हूजिये ॥ ११ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। यही विद्वानों का प्रशंसा करने योग्य काम है जो पाप का खण्डन और धर्म का मण्डन करना, किसी को दुष्ट का सङ्ग और श्रेष्ठजन का त्याग न करना चाहिये ॥ ११ ॥इस सूक्त में विद्वानों और राजजनों के धर्म का वर्णन होने से इस सूक्त में कहे हुए अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥यह एकसौ उनतीसवाँ सूक्त और सत्रहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्विदुषां किं कर्त्तव्यमस्तीत्याह ।

अन्वय:

हे सुष्टुतेन्द्रावयाता देवः सन् दुर्मतीनां सदमिव दुर्मतीनां प्रचारं हत्वा स्रिधो नोऽस्मान् पाहि। हे वसो जनिता यं रक्षोहणं त्वा जीजनत्। हे वसो यं त्वा रक्षकं जीजनत् स हि त्वमध पापस्य रक्षसो हन्ता मावतो विप्रस्य त्राता भव ॥ ११ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (पाहि) (नः) अस्मान् (इन्द्र) सभेश (सुष्टुत) सुष्ठुप्रशंसित (स्रिधः) दुःखनिमित्तात् पापात् (अवयाता) विरुद्धं गन्ता (सदम्) स्थानम् (इत्) इव (दुर्मतीनाम्) दुष्टानां मनुष्याणाम् (देवः) सत्यं न्यायं कामयमानः (सन्) (दुर्मतीनाम्) दुष्टधियां मनुष्याणाम् (हन्ता) (पापस्य) पापाचारस्य (रक्षसः) परपीडकस्य (त्राता) रक्षकः (विप्रस्य) मेधाविनो धार्मिकस्य (मावतः) मत्सदृशस्य (अध) आनन्तर्ये (हि) खलु (त्वा) त्वाम् (जनिता) (जीजनत्) जनयेत्। अत्र लुङ्यडभावः। (वसो) यः सज्जनेषु वसति तत्संबुद्धौ (रक्षोहणम्) (त्वा) त्वाम् (जीजनत्) जनयेत् (वसो) विद्यासु वासयितः ॥ ११ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। इदमेव विदुषां प्रशंसनीयं कर्माऽस्ति यत् पापस्य खण्डनं धर्मस्य मण्डनमिति न केनाऽपि दुष्टस्य सङ्गः श्रेष्ठसङ्गत्यागश्च कर्त्तव्य इति ॥ ११ अत्र विद्वद्राजधर्मवर्णनादेतत्सूक्तोक्तार्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम् ॥इत्येकोनत्रिंशदुत्तरं शततमं सूक्तं सप्तदशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. विद्वानांचे हेच प्रशंसनीय कार्य आहे. ते म्हणजे पापाचे खंडन व धर्माचे मंडन करणे होय. कुणीही दुष्टांची संगती व श्रेष्ठांचा त्याग करू नये. ॥ ११ ॥