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त्वं न॑ इन्द्र रा॒या तरू॑षसो॒ग्रं चि॑त्त्वा महि॒मा स॑क्ष॒दव॑से म॒हे मि॒त्रं नाव॑से। ओजि॑ष्ठ॒ त्रात॒रवि॑ता॒ रथं॒ कं चि॑दमर्त्य। अ॒न्यम॒स्मद्रि॑रिषे॒: कं चि॑दद्रिवो॒ रिरि॑क्षन्तं चिदद्रिवः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tvaṁ na indra rāyā tarūṣasograṁ cit tvā mahimā sakṣad avase mahe mitraṁ nāvase | ojiṣṭha trātar avitā rathaṁ kaṁ cid amartya | anyam asmad ririṣeḥ kaṁ cid adrivo ririkṣantaṁ cid adrivaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त्वम्। नः॒। इ॒न्द्र॒। रा॒या। तरू॑षसा। उ॒ग्रम्। चि॒त्। त्वा॒। म॒हि॒मा। स॒क्ष॒त्। अव॑से। म॒हे। मि॒त्रम्। न। अव॑से। ओजि॑ष्ठ। त्रातः॑। अवि॑त॒रिति॑। रथ॑म्। कम्। चि॒त्। अ॒म॒र्त्य॒। अ॒न्यम्। अ॒स्मत्। रि॒रि॒षेः॒। कम्। चि॒त्। अ॒द्रि॒ऽवः॒। रिरि॑क्षन्तम्। चि॒त्। अ॒द्रि॒ऽवः॒ ॥ १.१२९.१०

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:129» मन्त्र:10 | अष्टक:2» अध्याय:1» वर्ग:17» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:19» मन्त्र:10


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्य कैसे हों, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) परमैश्वर्ययुक्त राजन् (त्वम्) आप (तरूषसा) जिससे शत्रुओं के बलों को पार होते उस काल और (राया) उत्तम लक्ष्मी से (महे) अत्यन्त (अवसे) रक्षा आदि सुख के लिये वा (मित्रम्) मित्र के (न) समान (अवसे) रक्षा आदि व्यवहार के लिये जिन (त्वा) आपको (महिमा) बड़प्पन प्रताप (सक्षत्) सम्बन्धे अर्थात् मिले सो आप (चित्) भी (नः) हम लोगों की रक्षा करो। हे (ओजिष्ठ) अतीव प्रतापी (अवितः) रक्षा करनेवाले (अमर्त्य) अपनी कीर्त्ति कलाप से मरण धर्म रहित (त्रातः) राज्य पालनेहारे आप (कं, चित्) किसी (रथम्) रमण करने योग्य रथ को प्राप्त होओ। हे (अद्रिवः) बहुत मेघोंवाले सूर्य के समान तेजस्वी आप (अस्मत्) हम लोगों से (कं, चित्) किसी (अन्यम्) और ही को (रिरिषेः) मारो। हे (अद्रिवः) पर्वत भूमियों के राज्य से युक्त आप (रिरिक्षन्तम्) हिंसा करने की इच्छा करते हुए (उग्रम्) तीव्र प्राणी को (चित्) भी मारो ताड़ना देओ ॥ १० ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों की यही महिमा है जो श्रेष्ठों की पालना और दुष्टों की हिंसा करना ॥ १० ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्याः कीदृशा भवेयुरित्याह ।

अन्वय:

हे इन्द्र तरूषसा राया महेऽवसे मित्रं नेवावसे यं त्वा महिमा सक्षत् स त्वं चिन्नोऽस्मान् पाहि। हे ओजिष्ठावितरमर्त्य त्रातस्त्वं कं चिद्रथं प्राप्नुहि। हे अद्रिवस्त्वमस्मत्कञ्चिदन्यं रिरिषेः। हे अद्रिवस्त्वं रिरिक्षन्तमुग्र चिद्रिरिषेः ॥ १० ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (त्वम्) (नः) (इन्द्र) परमैश्वर्ययुक्त राजन् (राया) परमलक्ष्म्या (तरूषसा) तरन्ति शत्रुबलानि येन तत्तरुषस्तेन (उग्रम्) तीव्रम् (चित्) अपि (त्वा) त्वाम् (महिमा) महतो भावः प्रतापः (सक्षत्) संबध्नीयात् (अवसे) रक्षणाद्याय (महे) महते (मित्रम्) सखायम् (न) इव (अवसे) रक्षणाद्याय (ओजिष्ठ) अतिशयेनौजस्विन् (त्रातः) रक्षितः (अवितः) रक्षक (रथम्) रमणीयम् (कम्) सुखकरम् (चित्) अपि (अमर्त्य) कीर्त्या मरणधर्मरहित (अन्यम्) भिन्नम् (अस्मत्) (रिरिषेः) हिन्धि। अत्र बहुलं छन्दसीति शस्य श्लुः। (कम्) (चित्) अपि (अद्रिवः) अद्रयो बहवो मेघा विद्यन्ते यस्मिन् सूर्ये तदिव तेजस्विन् (रिरिक्षन्तम्) रेष्टुं हिंसितुमिच्छन्तम् (चित्) इव (अद्रिवः) बहुशैलराज्ययुक्त ॥ १० ॥
भावार्थभाषाः - अयमेव मनुष्याणां महिमा यच्छ्रेष्ठपालनं दुष्टहिंसनं चेति ॥ १० ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणसाची हीच महिमा आहे की श्रेष्ठांचे पालन व दुष्टांचे निर्दलन ॥ १० ॥