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स मानु॑षे वृ॒जने॒ शंत॑मो हि॒तो॒३॒॑ऽग्निर्य॒ज्ञेषु॒ जेन्यो॒ न वि॒श्पति॑: प्रि॒यो य॒ज्ञेषु॑ वि॒श्पति॑:। स ह॒व्या मानु॑षाणामि॒ळा कृ॒तानि॑ पत्यते। स न॑स्त्रासते॒ वरु॑णस्य धू॒र्तेर्म॒हो दे॒वस्य॑ धू॒र्तेः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sa mānuṣe vṛjane śaṁtamo hito gnir yajñeṣu jenyo na viśpatiḥ priyo yajñeṣu viśpatiḥ | sa havyā mānuṣāṇām iḻā kṛtāni patyate | sa nas trāsate varuṇasya dhūrter maho devasya dhūrteḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सः। मानु॑षे। वृ॒जने॑। शम्ऽत॑मः। हि॒तः। अ॒ग्निः। य॒ज्ञेषु॑। जेन्यः॑। न। वि॒श्पतिः॑। प्रि॒यः। य॒ज्ञेषु॑। वि॒श्पतिः॑। सः। ह॒व्या। मानु॑षाणाम्। इ॒ळा। कृ॒तानि॑। प॒त्य॒ते॒। सः। नः॒। त्रा॒स॒ते॒। वरु॑णस्य। धू॒र्तेः। म॒हः। दे॒वस्य॑। धू॒र्तेः ॥ १.१२८.७

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:128» मन्त्र:7 | अष्टक:2» अध्याय:1» वर्ग:15» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:19» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - जो (प्रियः) तृप्ति करनेवाला है वह (विश्पतिः) प्रजाओं का पालक राजा (नः) हम लोगों को (धूर्त्तेः) हिंसक से (त्रासते) वेमन कराता और (सः) वह (धूर्त्तेः) अविद्या को नाशने और (महः) बड़े (देवस्य) विद्या देनेवाले (वरुणस्य) उत्तम विद्वान् के पास से जो (यज्ञेषु) सङ्ग करने योग्य व्यवहारों में (मानुषाणाम्) मनुष्यों के (इळा) अच्छे संस्कारों से युक्त (कृतानि) सिद्ध किये शुद्ध वचन (हव्या) जो कि ग्रहण करने योग्य हों उनको स्थिर करता तथा (सः) वह सबको (पत्यते) प्राप्त होता वा (यज्ञेषु) अग्निहोत्र आदि यज्ञों में (अग्निः) अग्नि के समान वा (जेन्यः) विजयशील के (न) समान (विश्पतिः) प्रजाजनों का पालनेवाला (मानुषे) मनुष्यों के (वृजने) उस मार्ग में कि जिसमें गमन करते (हितः) हित सिद्ध करनेवाला (शंतमः) अतीव सुखकारी होता (सः) वह विद्वान् सबको सत्कार करने योग्य होता है ॥ ७ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो धर्म मार्ग में मनुष्यों को उपदेश से प्रवृत्त कराते, न्यायाधीश राजा के समान प्रजाजनों को पालने, डाँकू आदि दुष्ट प्राणियों से जो डर उसको निवृत्त करानेवाले विद्वानों के मित्रजन हैं, वे ही अन्धपरम्परा अर्थात् कुमार्ग के रोकनेवाले होने को योग्य होते हैं ॥ ७ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्ते किं कुर्य्युरित्याह।

अन्वय:

यः प्रियो विश्पतिर्नोऽस्मान् धूर्त्तेस्त्रासते स धूर्त्तेर्महो देवस्य वरुणस्य सकाशात् यज्ञेषु मानुषाणामिळा कृतानि हव्या स्थिरीकरोति स सर्वैः पत्यते यो यज्ञेष्वग्निरिव जेन्यो न विश्पतिर्मानुषे वृजने हितश्शन्तमो भवति स सर्वैः सत्कर्त्तव्यो भवति ॥ ७ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सः) विद्वान् (मानुषे) मानुषाणामस्मिन् (वृजने) व्रजन्ति यस्मिन्मार्गे तस्मिन् पृषोदरादिनास्य सिद्धिः। (शंतमः) अतिशयेन सुखकारी (हितः) हितसंपादकः (अग्निः) पावक इव (यज्ञेषु) अग्निहोत्रादिषु (ज्येन्यः) जेतुं शीलः (न) इव (विश्पतिः) विशां पालको राजा (प्रियः) प्रीणाति सः (यज्ञेषु) सङ्गन्तव्येषु व्यवहारेषु (विश्पतिः) विशां प्रजानां पालयिता (सः) (हव्या) हव्यान्यादातुमर्हाणि (मानुषाणाम्) (इळा) सुसंस्कृतानि वचनानि (कृतानि) निष्पन्नानि (पत्यते) प्राप्यते (सः) (नः) अस्मान् (त्रासते) उद्वेजयति (वरुणस्य) श्रेष्ठस्य (धूर्त्तेः) हिंसकस्य सकाशात् (महः) महतः (देवस्य) विद्याप्रदस्य (धूर्त्तेः) अविद्याहिंसकस्य ॥ ७ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। ये धर्ममार्गे जनानुपदेशेन प्रवर्त्तयन्ति न्यायेशो राजेव प्रजापालका दस्य्वादिभयनिवारकाः विदुषां मित्राणि जनाः सन्ति त एवान्धपरम्परानिरोधका भवितुमर्हन्ति ॥ ७ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे माणसांना उपदेशाद्वारे धर्ममार्गात प्रवृत्त करतात. न्यायाधीश राजाप्रमाणे प्रजेचे पालन करून डाकू इत्यादी दुष्ट प्राण्यांपासून भयाची निवृत्ती करवितात ते विद्वानांचे मित्र असतात. तेच अंधपरंपरा अर्थात कुमार्ग रोखण्यास समर्थ असतात. ॥ ७ ॥