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श्रु॒तं गा॑य॒त्रं तक॑वानस्या॒हं चि॒द्धि रि॒रेभा॑श्विना वाम्। आक्षी शु॑भस्पती॒ दन् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

śrutaṁ gāyatraṁ takavānasyāhaṁ cid dhi rirebhāśvinā vām | ākṣī śubhas patī dan ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

श्रु॒तम्। गा॒य॒त्रम्। तक॑वानस्य। अ॒हम्। चि॒त्। हि। रि॒रेभ॑। अ॒श्वि॒ना॒। वा॒म्। आ। अ॒क्षी इति॑। शु॒भः॒। प॒ती॒ इति॑। दन् ॥ १.१२०.६

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:120» मन्त्र:6 | अष्टक:1» अध्याय:8» वर्ग:23» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:17» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर पढ़ने-पढ़ाने की विधि का उपदेश अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अक्षी) रूपों के दिखानेहारी आँखों के समान वर्त्तमान (शुभस्पती) धर्म के पालने और (अश्विना) विद्या की प्राप्ति कराने वा उपदेश करनेहारे विद्वानो ! (वाम्) तुम्हारे तीर से (तकवानस्य) विद्या पाये विद्वान् के (चित्) भी (गायत्रम्) उस ज्ञान को जो गानेवाले की रक्षा करता है वा (श्रुतम्) सुने हुए उत्तम व्यवहार को (आ, दन्) ग्रहण करता हुआ (अहम्) मैं (हि) ही (रिरेभ) उपदेश करूँ ॥ ६ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि जो-जो उत्तम विद्वानों से पढ़ा वा सुना है, उस-उस को औरों को नित्य पढ़ाया और उपदेश किया करें। मनुष्य जैसे औरों से विद्या पावे वैसे ही देवे क्योंकि विद्यादान के समान कोई और धर्म बड़ा नहीं है ॥ ६ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनरध्ययनाध्यापनविधिरुच्यते ।

अन्वय:

हे अक्षी इव वर्त्तमानौ शुभस्पती अश्विना वां युवयोः सकाशात्तकवानस्य चिदपि गायत्रं श्रुतमादन्नहं हि रिरेभ ॥ ६ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (श्रुतम्) (गायत्रम्) गायन्तं त्रातृविज्ञानम् (तकवानस्य) प्राप्तविद्यस्य। गत्यर्थात्तकधातोरौणादिक उः पश्चाद् भृगवाणवत्। (अहम्) (चित्) अपि (हि) खलु (रिरेभ) रेभ उपदिशानि। व्यत्ययेन परस्मैपदम्। (अश्विना) विद्याप्रापकावध्यापकोपदेष्टारौ (वाम्) युवाम् (आ) (अक्षी) रूपप्रकाशके नेत्रे इव (शुभस्पती) धर्मस्य पालकौ (दन्) ददन्। डुदाञ् धातोः शतरि छन्दसि वेति वक्तव्यमिति द्विर्वचनाभावे सार्वधातुकत्वान् ङित्वमार्द्धधातुकत्वादाकारलोपश्च ॥ ६ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्यद्यदाप्तेभ्योऽधीयते श्रूयते तत्तदन्येभ्यो नित्यमध्याप्यमुपदेशनीयं च। यथाऽन्येभ्यः स्वयं विद्यां गृह्णीयात्तथैव प्रदद्यात्। नो खलु विद्यादानेन सदृशोऽन्यः कश्चिदपि धर्मोऽधिको विद्यते ॥ ६ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी विद्वानांकडून जे जे उत्तम शिकलेले व ऐकलेले आहे ते ते इतरांना सदैव शिकवावे व उपदेश करावा. माणूस जसा इतरांकडून विद्या प्राप्त करतो. तशी इतरांनाही द्यावी. कारण विद्यादानासारखा कोणताही मोठा धर्म नाही. ॥ ६ ॥