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स नः॑ पावक दीदि॒वोऽग्ने॑ दे॒वाँ इ॒हा व॑ह। उप॑ य॒ज्ञं ह॒विश्च॑ नः॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sa naḥ pāvaka dīdivo gne devām̐ ihā vaha | upa yajñaṁ haviś ca naḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सः। नः॒। पा॒व॒क॒। दी॒दि॒ऽवः॒। अग्ने॑। दे॒वान्। इ॒ह। आ। व॒ह॒। उप॑। य॒ज्ञम्। ह॒विः। च॒। नः॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:12» मन्त्र:10 | अष्टक:1» अध्याय:1» वर्ग:23» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:4» मन्त्र:10


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी अगले मन्त्र में इन्हीं दोनों का उपदेश किया है-

पदार्थान्वयभाषाः - हे (दीदिवः) अपने सामर्थ्य से प्रकाशवान् (पावक) पवित्र करने तथा (अग्ने) सब पदार्थों को प्राप्त करानेवाले (सः) जगदीश्वर ! आप (नः) हम लोगों के सुख के लिये (इह) इस संसार में (देवान्) विद्वानों को (आवह) प्राप्त कीजिये, तथा (नः) हमारे (यज्ञम्) उक्त तीन प्रकार के यज्ञ और (हविः) देनेलेने योग्य पदार्थों को (उपावह) हमारे समीप प्राप्त कीजिये॥१॥१०॥(यः) जो (दीदिवः) प्रकाशमान तथा (पावक) शुद्धि का हेतु (अग्ने) भौतिक अग्नि अच्छी प्रकार कलायन्त्रों में युक्त किया हुआ (नः) हम लोगों के सुख के लिये (इह) हमारे समीप (देवान्) दिव्यगुणों को (आवह) प्राप्त करता है, वह (नः) हमारे तीन प्रकार के उक्त (यज्ञम्) यज्ञ को तथा (हविः) उक्त पदार्थों को प्राप्त होकर सुखों को (उपावह) हमारे समीप प्राप्त करता रहता है॥२॥१०॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। जिस प्राणी को किसी पदार्थ की इच्छा उत्पन्न हो, वह अपनी कामसिद्धि के लिये परमेश्वर की प्रार्थना और पुरुषार्थ करे। जैसे इस वेद में जगदीश्वर के गुण, स्वभाव तथा औरों के उत्पन्न किये हुए दृष्टिगोचर होते हैं, वैसे मनुष्यों को उनके अनुकूल कर्म के अनुष्ठान से अग्नि आदि पदार्थों के गुणों को ग्रहण करके अनेक प्रकार व्यवहार की सिद्धि करना चाहिये॥१०॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनरेतावुपदिश्येते।

अन्वय:

हे दीदिवः पावकाग्ने ! स त्वमस्मभ्यमिह देवानावह, नोऽस्माकं यज्ञं हविश्चोपावहेत्येकः॥ यो दीदिवान् पावकोऽग्निः सम्यक् प्रयुक्तः सन्नोऽस्मभ्यमिह देवानावहति, स नोऽस्माकं यज्ञं हविश्च प्राप्य सुखान्युपावहतीति द्वितीयः॥१०॥अतोऽग्रे (१) प्रथमाङ्केनाद्यान्वयार्थो (२) द्वितीयेन द्वितीयार्थश्च सर्वत्र वेद्यः।

पदार्थान्वयभाषाः - (सः) जगदीश्वरो भौतिको वा (नः) अस्मभ्यम् (पावक) पवित्रकर्त्तः शुद्धिहेतुर्वा (दीदिवः) स्वसामर्थ्येन देदीप्यमान ! दीप्तिमान् वा (अग्ने) सर्वप्रापक प्राप्तिहेतुर्वा (देवान्) विदुषो दिव्यगुणान् वा। (इह) अस्मिन् संसारेऽस्मत्संनिधौ (आ) समन्तात् (वह) प्रापय प्रापयति वा। अत्र पक्षे व्यत्ययः। (उप) सामीप्ये (यज्ञम्) पूर्वोक्तं त्रिविधम् (हविः) दातुमादातुमर्हं (च) समुच्चये (नः) अस्माकम्॥१०॥
भावार्थभाषाः - अत्र श्लेषालङ्कारः। यस्य प्राणिनः कस्यचित्पदार्थस्य प्राप्तीच्छा जायते तत्सिद्धये परमेश्वरः प्रार्थ्यते पुरुषार्थश्च क्रियते। यादृशा अस्मिन् वेदे जगदीश्वरस्य गुणस्वभावा अन्येषां च प्रतिपादिता दृश्यन्ते मनुष्यैस्तदनुकूलकर्मानुष्ठानेनाग्न्यादिपदार्थगुणान् विदित्वाऽनेकविधा व्यवहारसिद्धिः कार्य्येति॥१०॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. ज्या माणसाला एखादा पदार्थ मिळविण्याची इच्छा झाल्यास त्याने इच्छापूर्तीसाठी परमेश्वराची प्रार्थना व पुरुषार्थ करावा. जसे वेदाने जगदीश्वराचे गुण कर्म स्वभाव सांगितलेले आहेत व इतरांनीही प्रतिपादित केलेले दिसून येतात. तसे माणसांनी त्यांच्या अनुकूल कर्माच्या अनुष्ठानाने अग्नी इत्यादी पदार्थांच्या गुणांना ग्रहण करून अनेक प्रकारे व्यवहारांची सिद्धी केली पाहिजे. ॥ १० ॥