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ऊ॒र्ध्वा धी॒तिः प्रत्य॑स्य॒ प्रया॑म॒न्यधा॑यि॒ शस्म॒न्त्सम॑यन्त॒ आ दिश॑:। स्वदा॑मि घ॒र्मं प्रति॑ यन्त्यू॒तय॒ आ वा॑मू॒र्जानी॒ रथ॑मश्विनारुहत् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ūrdhvā dhītiḥ praty asya prayāmany adhāyi śasman sam ayanta ā diśaḥ | svadāmi gharmam prati yanty ūtaya ā vām ūrjānī ratham aśvināruhat ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ऊ॒र्ध्वा। धी॒तिः। प्रति॑। अ॒स्य॒। प्रऽया॑मनि। अधा॑यि। शस्म॑न्। सम्। अ॒य॒न्ते॒। आ। दिशः॑। स्वदा॑मि। घ॒र्मम्। प्रति॑। य॒न्ति॒। ऊ॒तयः॑। आ। वा॒म्। ऊ॒र्जानी॑। रथ॑म्। अ॒श्वि॒ना॒। अ॒रु॒ह॒त् ॥ १.११९.२

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:119» मन्त्र:2 | अष्टक:1» अध्याय:8» वर्ग:20» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:17» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्य क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अश्विना) सभासेनाधीशो ! (वाम्) तुम दोनों की (शस्मन्) प्रशंसा के योग्य (प्रयामनि) अति उत्तम यात्रा में जो (ऊर्जानि) पराक्रमयुक्त नीति और (ऊर्ध्वा, धीतिः) उन्नतियुक्त धारणा वा ऊँची धारणा जिन मनुष्यों ने (अधायि) धारण की वे (दिशः) दान आदि उत्तम कर्म करनेहारे मनुष्य (सम्, आ, अयन्ते) भली-भाँति आते हैं। जिस (रथम्) मनोहर विमान आदि यान का शिल्पी कारुक जन (आ, अरुहत्) आरोहण करता अर्थात् उसपर चढ़ता है उसपर तुम लोग चढ़ो। जिस (घर्मम्) उज्ज्वल सुगन्धियुक्त भोजन करने योग्य पदार्थ को (ऊतयः) मनोहर रक्षा आदि व्यवहार हम लोगों के लिये (यन्ति) प्राप्त करते हैं उसको (प्रति) तुम प्राप्त होओ और जिस उज्ज्वल सुगन्धियुक्त भोजन करने योग्य पदार्थ का मैं (स्वदामि) स्वाद लेऊँ (अस्य) इसके स्वाद को तुम (प्रति) प्रतीति से प्राप्त होओ ॥ २ ॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! तुम अच्छे बने हुए, रोगों का विनाश करने और बल के देनेहारे अन्नों को भोगो। यात्रा में सब सामग्री को लेकर एक दूसरे से प्रीति और रक्षा कर-करा देश-परदेश को जाओ पर कहीं नीति को न छोड़ो ॥ २ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्याः किं कुर्य्युरित्युपदिश्यते ।

अन्वय:

हे अश्विना वां युवयोः शस्मन् प्रयामन्यूर्जान्यूर्ध्वा धीतिश्च यैर्जनैरधायि ते दिशः समायन्ते। यं रथं शिल्प्यारुहतं युवामारोहेताम्। यं घर्ममूतयो नो यन्ति तं युवां प्रति यन्तु। यं घर्ममहं स्वदाम्यस्य स्वादं युवां प्रति यातम् ॥ २ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (ऊर्ध्वा) (धीतिः) धारणा (प्रति) (अस्य) (प्रयामनि) प्रयाणे (अधायि) धृता (शस्मन्) स्तोतुमर्हे (सम्) (अयन्ते) गच्छन्ते (आ) (दिशः) ये दिशन्त्यतिसृजन्ति ते जनाः (स्वदामि) (घर्मम्) प्रदीप्तं सुगन्धियुक्तं भोज्यं पदार्थम् (प्रति) (यन्ति) प्रापयन्ति (ऊतयः) कमनीया रक्षादयः (आ) (वाम्) युवयोः (ऊर्जानी) पराक्रमयुक्ता नीतिः (रथम्) विमानादियानम् (अश्विना) सभासेनेशौ (अरुहत्) रोहति ॥ २ ॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या यूयं सुसंस्कृतानि रोगापहारकाणि बलप्रदान्यन्नानि भुङ्ग्ध्वम्। यात्रायां सर्वाः सामग्रीः संगृह्य परस्परं प्रीतिरक्षणे विधाय देशान्तरं गच्छत कुत्रापि नीतिं मा त्यजत ॥ २ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो! तुम्ही चांगले तयार केलेले, रोगांचा नाश करणारे, बल देणारे अन्न खा. प्रवासात सर्व साहित्य घेऊन एक दुसऱ्यावर प्रेम करून व रक्षण करून देशी व परदेशी जा पण कुठेही नीती सोडू नका. ॥ २ ॥