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यवं॒ वृके॑णाश्विना॒ वप॒न्तेषं॑ दु॒हन्ता॒ मनु॑षाय दस्रा। अ॒भि दस्युं॒ बकु॑रेणा॒ धम॑न्तो॒रु ज्योति॑श्चक्रथु॒रार्या॑य ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yavaṁ vṛkeṇāśvinā vapanteṣaṁ duhantā manuṣāya dasrā | abhi dasyum bakureṇā dhamantoru jyotiś cakrathur āryāya ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यव॑म्। वृके॑ण। अ॒श्विना। वप॑न्ता। इष॑म्। दु॒हन्ता॑। मनु॑षाय। द॒स्रा॒। अ॒भि। दस्यु॑म्। बकु॑रेण। धम॑न्ता। उ॒रु। ज्योतिः॑। च॒क्र॒थुः॒। आर्या॑य ॥ १.११७.२१

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:117» मन्त्र:21 | अष्टक:1» अध्याय:8» वर्ग:17» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:17» मन्त्र:21


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर राजधर्म विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (दस्रा) दुःख दूर करनेहारे (अश्विना) सुख में रमे हुए सभासेनाधीशो ! तुम दोनों (मनुषाय) विचारवान् मनुष्य के लिये (वृकेण) छिन्न-भिन्न करनेवाले हल आदि शस्त्र-अस्त्र से (यवम्) यव आदि अन्न के समान (वपन्ता) बोते और (इषम्) अन्न को (दुहन्ता) पूर्ण करते हुए तथा (आर्य्याय) ईश्वर के पुत्र के तुल्य वर्त्तमान धार्मिक मनुष्य के लिये (बकुरेण) प्रकाशमान सूर्य्य ने किया (ज्योतिः) प्रकाश जैसे अन्धकार को वैसे (दस्युम्) डाकू, दुष्ट प्राणी को (अभि, धमन्ता) अग्नि से जलाते हुए (उरु) अत्यन्त बड़े राज्य को (चक्रथुः) करो ॥ २१ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में लुप्तोपमालङ्कार है। राजपुरुषों को चाहिये कि प्रजाजनों में जो कण्टक, लम्पट, चोर, झूठा और खारे बोलनेवाले दुष्ट मनुष्य हैं उनको रोक, खेती आदि कामों से युक्त वैश्य प्रजाजनों की रक्षा और खेती आदि कामों की उन्नति कर अत्यन्त विस्तीर्ण राज्य का सेवन करें ॥ २१ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुना राजधर्ममाह ।

अन्वय:

हे दस्राश्विना युवां मनुषाय वृकेण यवमिव वपन्तेषं दहन्ताऽर्य्याय बकुरेण ज्योतिस्तमइव दस्युमभिधमन्तोरु राज्यं चक्रथुः कुरुतम् ॥ २१ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यवम्) यवादिकमिव (वृकेण) छेदकेन शस्त्रास्त्रादिना (अश्विना) सुखव्यापिनौ (वपन्ता) (इषम्) अन्नम् (दुहन्ता) प्रपूरयन्तौ (मनुषाय) मननशीलाय जनाय (दस्रा) दुःखविनाशकौ (अभि) (दस्युम्) (बकुरेण) भासमानेन सूर्य्येण तम इव। अत्रान्येषामपीति दीर्घः। (धमन्ता) अग्निं संयुञ्जानौ (उरु) ज्योतिः विद्याविनयप्रकाशम् (चक्रथुः) (आर्य्याय) अर्य्यस्येश्वरस्य पुत्रवद्वर्त्तमानाय ।यास्कमुनिरिमं मन्त्रमेवं व्याचष्टे−बकुरो भास्करो भयंकरो भासमानो द्रवतीति वा ॥ २५ ॥ यवमिव वृकेणाश्विनौ निवपन्तौ। वृको लाङ्गलं भवति विकर्त्तनात्। लाङ्गलं लङ्गतेर्लाङ्गूलवद्वा। लाङ्गूलं लगतेर्लङ्गतेर्लम्बतेर्वा। अन्नं दुहन्तौ मनुष्याय दर्शनीयावभिधमन्तौ दस्युं बकुरेण ज्योतिषा वोदकेन वार्य्य ईश्वरपुत्रः। निरु० ६। २६। ॥ २१ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र लुप्तोपमालङ्कारः। राजपुरुषैः प्रजाकण्टकान् लम्पटचोरानृतपरुषवादिनो दुष्टान् निरुध्य कृष्यादिकर्मयुक्तान् प्रजास्थान् वैश्यान् संरक्ष्य कृष्यादिकर्माण्युन्नीय विस्तीर्णं राज्यं सेवनीयम् ॥ २१ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात लुप्तोपमालंकार आहे. राजपुरुषांनी कंटक, चोर, लंपट, दुष्ट माणसे यांना रोखावे. शेती वगैरे कामातील शेतकरी व वैश्य लोकांचे रक्षण करून शेतीसंबंधीच्या कामाची वाढ करून अत्यंत विस्तीर्ण राज्य बनवावे. ॥ २१ ॥