वांछित मन्त्र चुनें

तुग्रो॑ ह भु॒ज्युम॑श्विनोदमे॒घे र॒यिं न कश्चि॑न्ममृ॒वाँ अवा॑हाः। तमू॑हथुर्नौ॒भिरा॑त्म॒न्वती॑भिरन्तरिक्ष॒प्रुद्भि॒रपो॑दकाभिः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tugro ha bhujyum aśvinodameghe rayiṁ na kaś cin mamṛvām̐ avāhāḥ | tam ūhathur naubhir ātmanvatībhir antarikṣaprudbhir apodakābhiḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

तुग्रः॑। ह॒। भु॒ज्युम्। अ॒श्वि॒ना॒। उ॒द॒ऽमे॒घे। र॒यिम्। न। कः। चि॒त्। म॒मृ॒ऽवाम्। अव॑। अ॒हाः॒। तम्। ऊ॒ह॒थुः॒। नौ॒भिः। आ॒त्म॒न्ऽवती॑भिः। अ॒न्त॒रि॒क्ष॒प्रुत्ऽभिः॑। अप॑ऽउदकाभिः ॥ १.११६.३

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:116» मन्त्र:3 | अष्टक:1» अध्याय:8» वर्ग:8» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:17» मन्त्र:3


बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब नाव आदि के बनाने की विद्या का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अश्विना) पवन और बिजुली के समान बलवान् सेनाधीशो ! तुम (तुग्रः) शत्रुओं के मारनेवाला सेनापति शत्रुजन के मारने के लिये जिस (भुज्युम्) राज्य की पालना करने वा सुख भोगनेहारे पुरुष को (उदमेघे) जिसके जलों से संसार सींचा जाता है, उस समुद्र में जैसे (कश्चित्) कोई (ममृवान्) मरता हुआ (रयिम्) धन को छोड़े (न) वैसे (अवाहाः) छोड़ता है (तं, ह) उसी को (अपोदकाभिः) जल जिनमें आते-जाते (अन्तरिक्षप्रुद्भिः) अवकाश में चलती हुई (आत्मन्वतीभिः) और प्रशंसायुक्त विचारवाले क्रिया करने में चतुर पुरुष जिनमें विद्यमान उन (नौभिः) नावों से (ऊहथुः) एक स्थान से दूसरे स्थान को पहुँचाओ ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - जैसे कोई मरण चाहता हुआ मनुष्य धन, पुत्र आदि के मोह से छूट के शरीर से निकल जाता है, वैसे युद्ध चाहते हुए शूरों को अनुभव करना चाहिए। जब मनुष्य पृथिवी के किसी भाग से किसी भाग को समुद्र से उतरकर शत्रुओं के जीतने को जाया चाहें तब पुष्ट बड़ी-बड़ी कि जिनमें भीतर जल न जाता हो और जिनमें आत्मज्ञानी विचारवाले पुरुष बैठे हों और जो शस्त्र-अस्त्र आदि युद्ध की सामग्री से शोभित हों, उन नावों के साथ जावें ॥ ३ ॥
बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ नौकादिनिर्माणविद्योपदिश्यते ।

अन्वय:

हे अश्विना सेनापती युवां तुग्रः शत्रुहिंसनाय यं भुज्युमुदमेघे कश्चिन्ममृवान् रयिं नेवावाहास्तं हापोदकाभिरन्तरिक्षप्रुद्भिरात्मन्वतीभिर्नौभिरूहथुर्वहेतम् ॥ ३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (तुग्रः) शत्रुहिंसकः सेनापतिः (ह) किल (भुज्युम्) राज्यपालकं सुखभोक्तारं वा (अश्विना) वायुविद्युताविव बलिष्ठौ (उदमेघे) यस्योदकैर्मिह्यते सिच्यते जगत् तस्मिन्समुद्रे (रयिम्) धनम् (न) इव (कः) (चित्) (ममृवान्) मृतः सन् (अव) (अहाः) त्यजति। अत्र ओहाक्त्याग इत्यस्माल्लुङि प्रथमैकवचने आगमानुशासनस्यानित्यत्वात्सगिटौ न भवतः। (तम्) (ऊहथुः) वहेतम् (नौभिः) नौकाभिः (आत्मन्वतीभिः) प्रशस्ता आत्मन्वन्तो विचारवन्तः क्रियाकुशलाः पुरुषा विद्यन्ते यासु ताभिः (अन्तरिक्षप्रुद्भिः) अवकाशे गच्छन्तीभिः (अपोदकाभिः) अपगत उदकप्रवेशो यासु ताभिः ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - यथा कश्चिन्मुमूर्षुर्जनो धनपुत्रादीनां मोहाद्विरज्य शरीरान्निर्गच्छति तथा युयुत्सुभिः शूरैरनुभावनीयम्। यदा मनुष्यो द्वीपान्तरे समुद्रं तीर्त्वा शत्रुविजयाय गन्तुमिच्छेत्तदा दृढाभिर्बृहतीभिरन्तरप्प्रवेशादिदोषरहिताभिः परिवृतात्मीयजनाभिः शस्त्रास्त्रादिसम्भारालंकृताभिर्नौकाभिः सहैव यायात् ॥ ३ ॥
बार पढ़ा गया

माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जसा मृत्यू इच्छिणारा माणूस धन, पुत्र इत्यादी मोहापासून सुटून शरीर सोडून जातो तसे युद्ध इच्छिणाऱ्या शूरांनी वागले पाहिजे. जेव्हा माणसाला पृथ्वीच्या एखाद्या भागातून समुद्र पार करीत शत्रूंना जिंकण्यासाठी जावयाचे असेल तेव्हा मजबूत व ज्यात जल प्रवेश करू शकत नाही, ज्यात चतुर विचारवंत पुरुष बसलेले आहेत व शस्त्रास्त्रांनी युद्धाच्या सामग्रीने सज्ज असेल अशा नौकांद्वारे प्रवास करावा. ॥ ३ ॥