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र॒यिं सु॑क्ष॒त्रं स्व॑प॒त्यमायु॑: सु॒वीर्यं॑ नासत्या॒ वह॑न्ता। आ ज॒ह्नावीं॒ सम॑न॒सोप॒ वाजै॒स्त्रिरह्नो॑ भा॒गं दध॑तीमयातम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

rayiṁ sukṣatraṁ svapatyam āyuḥ suvīryaṁ nāsatyā vahantā | ā jahnāvīṁ samanasopa vājais trir ahno bhāgaṁ dadhatīm ayātam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

र॒यिम्। सु॒ऽक्ष॒त्रम्। सु॒ऽअ॒प॒त्यम्। आयुः॑। सु॒ऽवीर्य॑म्। ना॒स॒त्या॒। वह॑न्ता। आ। ज॒ह्नावी॑म्। सऽम॑नसा। उप॑। वाजैः॑। त्रिः। अह्नः॑। भा॒गम्। दध॑तीम्। अ॒या॒त॒म् ॥ १.११६.१९

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:116» मन्त्र:19 | अष्टक:1» अध्याय:8» वर्ग:11» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:17» मन्त्र:19


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (समनसा) समान विज्ञानवाले (वहन्ता) उत्तम सुख को प्राप्त हुए (नासत्या) सत्यधर्मपालक सभा सेना के अधिपतियो ! तुम दोनों सनातन न्याय के सेवन से (रयिम्) धनसमूह (सुक्षत्रम्) अच्छे राज्य (स्वपत्यम्) अच्छे संतान (आयुः) चिरकाल जीवन (सुवीर्य्यम्) उत्तम पराक्रम को और (वाजैः) ज्ञान वा वेगयुक्त भृत्यादिकों के साथ वर्त्तमान (जह्नावीम्) छोड़ने योग्य शत्रुओं की सेना की विरोधिनी इस सेना को तथा (अह्नः) दिन के (भागम्) सेवने योग्य विभाग अर्थात् समय को और (त्रिः) तीन बार (दधतीम्) धारण करती हुई सेना के (उप, आ, अयातम्) समीप अच्छे प्रकार प्राप्त होओ ॥ १९ ॥
भावार्थभाषाः - कोई विद्या और सत्यन्याय के सेवन के विना इन धन आदि पदार्थों को प्राप्त हो और इनकी रक्षा कर सुख नहीं कर सकता है, इससे धर्म के सेवन से ही राज्य आदि प्राप्त हो सकता है ॥ १९ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे समनसा वहन्ता नासत्याश्विनौ सभासेनेशौ युवां सनातनन्यायसेवनाद्रयिं सुक्षत्रं स्वपत्यमायुः सुवीर्यं वाजैः सह वर्त्तमानां जह्नावीमह्नो भागं त्रिर्दधतीं सेनामुपायातं सम्यक् प्राप्नुतम् ॥ १९ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (रयिम्) श्रीसमूहम् (सुक्षत्रम्) शोभनं राज्यम् (स्वपत्यम्) शोभनं सन्तानम् (आयुः) चिरञ्जीवनम् (सुवीर्यम्) उत्तमं पराक्रमम् (नासत्या) सत्यपालकौ सन्तौ (वहन्ता) प्राप्नुवन्तौ (आ) (जह्नावीम्) जहत्यास्त्याज्यायाः शत्रुसेनाया इमां विरोधिनीं सेनाम्। अत्र जहातेर्द्वेऽन्त्यलोपश्च। उ० ३। ३६। इति हाधातोर्नुस्ततस्तस्येदमित्यण्। पृषोदरादित्वाद्वर्णविपर्ययः। (समनसा) समानं मनो विज्ञानं ययोस्तौ (उप) (वाजैः) ज्ञानवेगयुक्तैर्भृत्यादिभिः सह वर्त्तमानम् (त्रिः) त्रिवारम् (अह्नः) दिवसस्य (भागम्) भजनीयं समयम् (दधतीम्) धरन्तीम् (अयातम्) प्राप्नुतम् ॥ १९ ॥
भावार्थभाषाः - नहि कश्चिद्विद्यासत्यन्यायसेवनमन्तरैतानि धनादीनि प्राप्य रक्षित्वा सुखं कर्त्तुं शक्नोति तस्माद्धर्मसेवनेनैव राज्यादिकं प्राप्तुं शक्यम् ॥ १९ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - कुणीही विद्या व सत्यन्यायाच्या सेवनाशिवाय धन इत्यादी पदार्थांना प्राप्त करून त्यांचे रक्षण करून सुख मिळवू शकत नाही, त्यामुळे धर्माच्या सेवनानेच राज्य इत्यादी प्राप्त होऊ शकते. ॥ १९ ॥