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च॒रित्रं॒ हि वेरि॒वाच्छे॑दि प॒र्णमा॒जा खे॒लस्य॒ परि॑तक्म्यायाम्। स॒द्यो जङ्घा॒माय॑सीं वि॒श्पला॑यै॒ धने॑ हि॒ते सर्त॑वे॒ प्रत्य॑धत्तम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

caritraṁ hi ver ivācchedi parṇam ājā khelasya paritakmyāyām | sadyo jaṅghām āyasīṁ viśpalāyai dhane hite sartave praty adhattam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

च॒रित्र॑म्। हि। वेःऽइ॑व। अच्छे॑दि। प॒र्णम्। आ॒जा। खे॒लस्य॑। परि॑ऽतक्म्यायाम्। स॒द्यः। जङ्घा॑म्। आय॑सीम्। वि॒श्पला॑यै। धने॑। हि॒ते। सर्त॑वे। प्रति॑। अ॒ध॒त्त॒म् ॥ १.११६.१५

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:116» मन्त्र:15 | अष्टक:1» अध्याय:8» वर्ग:10» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:17» मन्त्र:15


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे सभा सेनाधिपति ! तुम दोनों से (आजा) संग्राम में (परितक्म्यायाम्) रात्रि में (खेलस्य) शत्रु के खण्ड का (चरित्रम्) स्वाभाविक चरित्र अर्थात् शत्रुजनों की अलग-अलग बनी हुई टोली-टोली की चालकियाँ (वेरिव) उड़ते हुए पक्षी का जैसे (पर्णम्) पंख काटा जाय वैसे (सद्यः) शीघ्र (अच्छेदि) छिन्न-भिन्न की जायं तथा तुम (हिते) सुख बढ़ानेवाले (धने) सुवर्ण आदि धन के निमित्त (विश्पलायै) प्रजाजनों को सुख पहुँचानेवाली नीति के लिये (आयसीम्) लोहे के विकार से बनी हुई (जङ्घाम्) जिससे कि मारते हैं उसकी खाल को (सर्त्तवे) शत्रुओं पर जाने अर्थात् चढ़ाई करने के लिये (हि) ही (प्रत्यधत्तम्) प्रत्यक्ष धारण करो ॥ १५ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। प्रजाजनों की पालना करने में अत्यन्त चित्त दिये हुए भद्र राजा आदि जनों को चाहिये कि पखेरू के पंखों के समान दुष्टों के चरित्र को युद्ध में छिन्न-भिन्न करें। शस्त्र और अस्त्रों को धारण कर प्रजाजनों की पालना करें। क्योंकि जो प्रजाजनों से कर लिया जाता है, उसका बदला देना उन प्रजाजनों की रक्षा करना ही समझना चाहिये ॥ १५ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे अश्विनौ युवाभ्यामाजा परितक्म्यायां खेलस्य चरित्रं वेरिव पर्णं सद्योऽच्छेदि। हिते धने विश्पलायै आयसीं जङ्घां सर्तवे हि प्रत्यधत्तम् ॥ १५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (चरित्रम्) शत्रुशीलम् (हि) प्रसिद्धौ (वेरिव) उड्डीयमानस्य पक्षिण इव (अच्छेदि) छिद्येत (पर्णम्) पक्षम् (आजा) संग्रामे (खेलस्य) खण्डस्य (परितक्म्यायाम्) रात्रौ। परितक्म्या रात्रिः परित एनां तक्म। तक्मेत्युष्णनाम तकत इति सतः। निरु० ११। २५। (सद्यः) शीघ्रम् (जङ्घाम्) हन्ति यया ताम् (आयसीम्) अयोविकाराम् (विश्पलायै) विशां प्रजानां पलायै सुखप्रापिकायै नीत्यै (धने) सुवर्णरत्नादौ (हिते) सुखवर्धके (सर्त्तवे) सर्त्तुं गन्तुम् (प्रति) प्रत्यक्षे (अधत्तम्) भरतम् ॥ १५ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। भद्रैः प्रजापालनतत्परै राजादिजनैः पक्षिणः पक्षाविव दुष्टचरित्रं युद्धे छेत्तव्यम्। शस्त्रास्त्राणि धृत्वा प्रजाः पालनीयाः। कुतो यः प्रजायाः करो गृह्यते तस्य प्रत्युपकारो रक्षणमेव वेद्यम् ॥ १५ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. प्रजेचे पालन मनापासून करणाऱ्या कल्याणकारी राजाने पक्ष्याच्या पंखांप्रमाणे दुष्टांना युद्धात छिन्नभिन्न करून टाकावे. शस्त्रास्त्रे धारण करून प्रजेचे पालन करावे. कारण प्रजेकडून जो कर घेतला जातो त्याचा मोबदला म्हणून प्रजेचे रक्षण करावे, असे समजले पाहिजे. ॥ १५ ॥