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तद्वां॑ नरा॒ शंस्यं॒ राध्यं॑ चाभिष्टि॒मन्ना॑सत्या॒ वरू॑थम्। यद्वि॒द्वांसा॑ नि॒धिमि॒वाप॑गूळ्ह॒मुद्द॑र्श॒तादू॒पथु॒र्वन्द॑नाय ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tad vāṁ narā śaṁsyaṁ rādhyaṁ cābhiṣṭiman nāsatyā varūtham | yad vidvāṁsā nidhim ivāpagūḻham ud darśatād ūpathur vandanāya ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

तत्। वा॒म्। न॒रा॒। शंस्य॑म्। राध्य॑म्। च॒। अ॒भि॒ष्टि॒ऽमत्। ना॒स॒त्या॒। वरू॑थम्। यत्। वि॒द्वांसा॑। नि॒धिम्ऽइ॑व। अप॑ऽगूळ्हम्। उत्। द॒र्श॒तात्। ऊ॒पथुः॑। वन्द॑नाय ॥ १.११६.११

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:116» मन्त्र:11 | अष्टक:1» अध्याय:8» वर्ग:10» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:17» मन्त्र:11


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (नरा) धर्म की प्राप्ति (नासत्या) और सदा सत्य की पालना करने और (विद्वांसा) समस्त विद्या जाननेवाले धर्मराज, सभापति विद्वानो ! (वाम्) तुम दोनों का (यत्) जो (शंस्यम्) प्रशंसनीय (च) और (राध्यम्) सिद्ध करने योग्य (अभिष्टिमत्) जिसमें चाहे हुए प्रशंसित सुख हैं (वरूथम्) जो स्वीकार करने योग्य (अपगूढम्) जिसमें गुप्तपन अलग हो गया ऐसा जो प्रथम कहा हुआ गृहाश्रमसंबन्धि कर्म है, (तत्) उसको (निधिमिव) धन के कोष के समान (दर्शतात्) दिखनौट रूप से (वन्दनाय) सब ओर से सत्कार करने योग्य संतान और प्रशंसा के लिये (उत्, ऊपथुः) उच्च श्रेणी को पहुँचाओ अर्थात् उन्नति देओ ॥ ११ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! विद्यानिधि के परे सुख देनेवाला धन कोई भी तुम मत जानो। न इस कर्म के विना चाहे हुए संतान और सुख मिल सकते हैं और न सत्यासत्य के विचार से निर्णीत ज्ञान के विना विद्या की वृद्धि होती है, यह जानो ॥ ११ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे नरा नासत्या विद्वांसा धर्मराजसभास्वामिनौ वां युवयोर्यच्छंस्यं राध्यं चाभिष्टिमद्वरूथमपगूढं पूर्वोक्तं गृहाश्रमसंबन्धि कर्मास्ति तन्निधिमिव दर्शताद्वन्दनायोदूपथुरूर्ध्वं सततं वपेथाम् ॥ ११ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (तत्) (वाम्) युवयोः (नरा) धर्मनेतारौ (शंस्यम्) स्तुत्यं संसिद्धिकरम् (राध्यम्) राद्धुं संसाद्धुं योग्यम् (च) धर्मादिफलम् (अभिष्टिमत्) अभीष्टानि प्रशस्तानि सुखानि विद्यन्ते यस्मिंस्तत् (नासत्या) सर्वदा सत्यपालकौ (वरूथम्) वरणीयमुत्तमम् (यत्) (विद्वांसा) सकलविद्यावेत्तारौ (निधिमिव) (अपगूढम्) अपगतं संवरणमाच्छादनं यस्मात्तत् (उत्) (दर्शतात्) सुन्दराद्रूपात् (ऊपथुः) वपेथाम् (वन्दनाय) अभितः सत्कारार्हायापत्याय प्रशंसायै च ॥ ११ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। हे मनुष्या विद्याकोशात्परं सुखप्रदं धनं किमपि यूयं मा जानीत न खल्वेतेन कर्मणा विनाऽभीष्टान्यपत्यानि सुखानि च प्राप्तुं शक्यानि नैव समीक्षया विना विद्या वृद्धिर्जायत इत्यवगच्छत ॥ ११ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे माणसांनो! विद्याविधीपेक्षा सुख देणारे दुसरे कोणतेही धन नाही हे जाणा. या कर्माशिवाय इच्छित संतान व सुख मिळू शकत नाही व सत्यासत्य विचार निर्णित ज्ञानाशिवाय विद्येची वृद्धी होऊ शकत नाही हे जाणा. ॥ ११ ॥