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आ नो॑ य॒ज्ञाय॑ तक्षत ऋभु॒मद्वय॒: क्रत्वे॒ दक्षा॑य सुप्र॒जाव॑ती॒मिष॑म्। यथा॒ क्षया॑म॒ सर्व॑वीरया वि॒शा तन्न॒: शर्धा॑य धासथा॒ स्वि॑न्द्रि॒यम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ā no yajñāya takṣata ṛbhumad vayaḥ kratve dakṣāya suprajāvatīm iṣam | yathā kṣayāma sarvavīrayā viśā tan naḥ śardhāya dhāsathā sv indriyam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ। नः॒। य॒ज्ञाय॑। त॒क्ष॒त॒। ऋ॒भु॒ऽमत्। वयः॑। क्रत्वे॑। दक्षा॑य। सु॒ऽप्र॒जाव॑तीम्। इष॑म्। यथा॑। क्षया॑म। सर्व॑ऽवीरया। वि॒शा। तत्। नः॒। शर्धा॑य। धा॒स॒थ॒। सु। इ॒न्द्रि॒यम् ॥ १.१११.२

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:111» मन्त्र:2 | अष्टक:1» अध्याय:7» वर्ग:32» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:16» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे कैसे हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे बुद्धिमानो ! तुम (नः) हमारी (यज्ञाय) जिससे एक दूसरे से पदार्थ मिलाया जाता है उस शिल्पक्रिया की सिद्धि के लिये वा (क्रत्वे) उत्तम ज्ञान और न्याय के काम और (दक्षाय) बल के लिये (ऋभुमत्) जिसमें प्रशंसित मेधावी अर्थात् बुद्धिमान् जन विद्यमान हैं उस (वयः) जीवन को तथा (सुप्रजावतीम्) जिसमें अच्छी प्रजा विद्यमान हो अर्थात् प्रजाजन प्रसन्न होते हों (इषम्) उस चाहे हुए अन्न को (आतक्षत) अच्छे प्रकार उत्पन्न करो, (यथा) जैसे हम लोग (सर्ववीरया) समस्त वीरों से युक्त (विशा) प्रजा के साथ (क्षयाम) निवास करें तुम भी प्रजा के साथ निवास करो वा जैसे हम लोग (शर्द्धाय) बल के लिये (तत्) उस (सु, इन्द्रियम्) उत्तम विज्ञान और धन को धारण करें वैसे तुम भी (नः) हमारे बल होने के लिये उत्तम ज्ञान और धन को (धासथ) धारण करो ॥ २ ॥
भावार्थभाषाः - इस संसार में विद्वानों के साथ अविद्वान् और अविद्वानों के साथ विद्वान् जन प्रीति से नित्य अपना वर्त्ताव रक्खें। इस काम के विना शिल्पविद्यासिद्धि, उत्तम बुद्धि, बल और श्रेष्ठ प्रजाजन कभी नहीं हो सकते ॥ २ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते ।

अन्वय:

हे ऋभवो यूयं नोऽस्माकं यज्ञाय क्रत्वे दक्षाय ऋभुमद्वयः सुप्रजावतीमिषं चातक्षत यथा वयं सर्ववीरया विशा क्षयाम तथा यूयमपि प्रजया सह निवसत यथा वयं शर्द्धाय स्विन्द्रियं दध्याम तथा यूयमपि नोऽस्माकं शर्द्धाय तत् स्विन्द्रियं धासथ ॥ २ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (आ) समन्तात् (नः) अस्माकम् (यज्ञाय) संगतिकरणाख्यशिल्पक्रियासिद्धये (तक्षत) निष्पादयत (ऋभुमत्) प्रशस्ता ऋभवो मेधाविनो विद्यन्ते यस्मिँस्तत् (वयः) आयुः (क्रत्वे) प्रज्ञायै न्यायकर्मणे वा (दक्षाय) बलाय (सुप्रजावतीम्) सुष्ठु प्रजा विद्यन्ते यस्यां ताम् (इषम्) इष्टमन्नम् (यथा) (क्षयाम) निवासं करवाम (सर्ववीरया) सर्वैर्वीरैर्युक्तया (विशा) प्रजया (तत्) (नः) अस्माकम् (शर्द्धाय) बलाय (धासथ) धरत। अत्रान्येषामपीति दीर्घः। (सु) (इन्द्रियम्) विज्ञानं धनं वा ॥ २ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। इह जगति विद्वद्भिः सहाविद्वांसोऽविद्वद्भिः सह विद्वांसश्च प्रीत्या नित्यं वर्तेरन्। नैतेन कर्मणा विना शिल्पविद्यासिद्धिः प्रजाबलं शोभनाः प्रजाश्च जायन्ते ॥ २ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या जगात विद्वानांबरोबर अविद्वान व अविद्वानांबरोबर विद्वान लोकांनी सदैव प्रेमाचा व्यवहार ठेवावा. या कामाशिवाय शिल्पाविद्यासिद्धी, उत्तम बुद्धी, बल व श्रेष्ठ प्रजा कधी निर्माण होऊ शकत नाही. ॥ २ ॥