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पुरं॑दरा॒ शिक्ष॑तं वज्रहस्ता॒स्माँ इ॑न्द्राग्नी अवतं॒ भरे॑षु। तन्नो॑ मि॒त्रो वरु॑णो मामहन्ता॒मदि॑ति॒: सिन्धु॑: पृथि॒वी उ॒त द्यौः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

puraṁdarā śikṣataṁ vajrahastāsmām̐ indrāgnī avatam bhareṣu | tan no mitro varuṇo māmahantām aditiḥ sindhuḥ pṛthivī uta dyauḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

पुर॑म्ऽदरा॑। शिक्ष॑तम्। व॒ज्र॒ऽह॒स्ता॒। अ॒स्मान्। इ॒न्द्रा॒ग्नी॒ इति॑। अ॒व॒त॒म्। भरे॑षु। तत्। नः॒। मि॒त्रः। वरु॑णः। म॒म॒ह॒न्ता॒म्। अदि॑तिः। सिन्धुः॑। पृ॒थि॒वी। उ॒त। द्यौः ॥ १.१०९.८

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:109» मन्त्र:8 | अष्टक:1» अध्याय:7» वर्ग:29» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:16» मन्त्र:8


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे दोनों कैसे हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - जो (पुरन्दरा) शत्रुओं के पुरों को विध्वंस करनेवाले वा (वज्रहस्ता) जिनका विद्यारूपी वज्र हाथ के समान है वे (इन्द्राग्नी) उपदेश के सुनने वा करनेवाली तुम जैसे (मित्रः) सुहृज्जन (वरुणः) उत्तम गुणयुक्त (अदितिः) अन्तरिक्ष (सिन्धुः) समुद्र (पृथिवी) पृथिवी (उत) और (द्यौः) सूर्य का प्रकाश (नः) हम लोगों को (मामहन्ताम्) उन्नति देता है वैसे (अस्मान्) हम लोगों को (तत्) उन उक्त पदार्थों के विशेष ज्ञान की (शिक्षतम्) शिक्षा देओ और (भरेषु) संग्राम आदि व्यवहारों में (अवतम्) रक्षा आदि करो ॥ ८ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे मित्र आदि जन अपने मित्रादिकों की रक्षा कर और उन्नति करते वा एक दूसरे की अनुकूलता में रहते हैं, वैसे उपदेश के सुनने और सुनानेवाले परस्पर विद्या की वृद्धि कर प्रीति के साथ मित्रपन में वर्त्ताव रक्खें ॥ ८ ॥इस सूक्त्त में इन्द्र और अग्नि शब्द के अर्थ का वर्णन है। इससे इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति है, यह जानना चाहिये ॥यह १०९ एकसौ नववाँ सूक्त और २९ उनतीसवाँ वर्ग पूरा हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते ।

अन्वय:

हे पुरन्दरा वज्रहस्तेन्द्राग्नी युवां यथा मित्रो वरुणोऽदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौर्नो मामहन्तां तथाऽस्मान् तद्विज्ञानं शिक्षतं भरेष्ववतञ्च ॥ ८ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (पुरन्दरा) यौ शत्रूणां पुराणि दारयतस्तौ (शिक्षतम्) (वज्रहस्ता) वज्रहस्तौ वज्रं विद्यारूपं वीर्यं हस्तइव ययोस्तौ। वज्रो वै वीर्यम्। शत० ७। ४। २। २४। अत्रोभयत्र सुपां सुलुगित्याकारादेशः। (अस्मान्) (इन्द्राग्नी) उपदेश्योपदेष्टारौ (अवतम्) रक्षादिकं कुरुतम् (भरेषु) (तन्नो मित्रो०) इति पूर्ववत् ॥ ८ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा मित्रादयः स्वमित्रादीन् रक्षित्वा वर्धयन्त्यानुकूल्ये वर्त्तन्ते तथोपदेश्योपदेष्टारौ परस्परं विद्यां वर्धयित्वा संप्रीत्या सखित्वे वर्त्तेयाताम् ॥ ८ ॥अत्रेन्द्राग्निशब्दार्थवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम् ॥ इति नवोत्तरशततमं सूक्तमेकोनत्रिंशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे मित्र आपल्या मित्राचे रक्षण करतात, वाढ करतात. एक दुसऱ्याच्या अनुकूल असतात तसे उपदेश ऐकणाऱ्या व ऐकविणाऱ्यांनी विद्येची वृद्धी करून प्रेमाने मैत्रीचा व्यवहार करावा. ॥ ८ ॥