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समि॑द्धेष्व॒ग्निष्वा॑नजा॒ना य॒तस्रु॑चा ब॒र्हिरु॑ तिस्तिरा॒णा। ती॒व्रैः सोमै॒: परि॑षिक्तेभिर॒र्वागेन्द्रा॑ग्नी सौमन॒साय॑ यातम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

samiddheṣv agniṣv ānajānā yatasrucā barhir u tistirāṇā | tīvraiḥ somaiḥ pariṣiktebhir arvāg endrāgnī saumanasāya yātam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सम्ऽइ॑द्धेषु। अ॒ग्निषु॑। आ॒न॒जा॒ना। य॒तऽस्रु॑चा। ब॒र्हिः। ऊँ॒ इति॑। ति॒स्ति॒रा॒णा। ती॒व्रैः। सोमैः॑। परि॑ऽसिक्तेभिः। अ॒र्वाक्। आ। इ॒न्द्रा॒ग्नी॒ इति॑। सौ॒म॒न॒साय॑। या॒त॒म् ॥ १.१०८.४

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:108» मन्त्र:4 | अष्टक:1» अध्याय:7» वर्ग:26» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:16» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे कैसे हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जो तुम (यतस्रुचा) जिनमें स्रुच् अर्थात् होम करने के काम में जो स्रुचा होती हैं, उनके समान कलाघर विद्यमान (तिस्तिराणा) वा जो यन्त्रकलादिकों से ढांपे हुए होते हैं (आनजाना) वे आप प्रसिद्ध और प्रसिद्धि करनेवाले (इन्द्राग्नी) वायु और विद्युत् अर्थात् पवन और बिजुली (तीव्रैः) तीक्ष्ण और वेगादिगुणयुक्त (सोमैः) रसरूप जलों से (परिषिक्तेभिः) सब प्रकार की किई हुई सिचाइयों के सहित (समिद्धेषु) अच्छी प्रकार जलते हुए (अग्निषु) कलाघरों की अग्नियों के होते (अर्वाक्) पीछे (बर्हिः) अन्तरिक्ष में (यातम्) पहुँचाते हैं (उ) और (सौमनसाय) उत्तम से उत्तम सुख के लिये (आ) अच्छे प्रकार आते भी हैं, उनकी अच्छी शिक्षाकर कार्यसिद्धि के लिये कलाओं में लगाने चाहिये ॥ ४ ॥
भावार्थभाषाः - जब शिल्पियों से पवन और बिजुली कार्यसिद्धि के अर्थ कलायन्त्रों की क्रियाओं से युक्त किये जाते हैं, तब ये सर्वसुखों के लाभ के लिये समर्थ होते हैं ॥ ४ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते ।

अन्वय:

हे मनुष्या यूयं यौ यतस्रुचा तिस्तिराणानजानेन्द्राग्नी तीव्रैः सोमैः परिषिक्तेभिः समिद्धेष्वग्निषु सत्स्वर्वाग् बर्हिर्यातमु सौमनसायायातं गमयतस्तौ सम्यक् परीक्ष्य कार्य्यसिद्धये प्रयोज्यौ ॥ ४ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (समिद्धेषु) प्रदीप्तेषु (अग्निषु) कलायन्त्रस्थेषु (आनजाना) प्रसिद्धौ प्रसिद्धिकारकौ। अत्राञ्जू धातोर्लिटः स्थाने कानच्। (यतस्रुचा) यता उद्यता स्रुचः स्रुग्वत्कलादयो ययोस्तौ। अत्र सर्वत्र सुपां सुलुगिति द्विवचनस्थान आकारादेशः। (बर्हिः) अन्तरिक्षे (उ) (तिस्तिराणा) यन्त्रकलाभिराच्छादितौ (तीव्रैः) तीक्ष्णवेगादिगुणैः (सोमैः) रसभूतैर्जलैः (परिषिक्तेभिः) सर्वथा कृतसिञ्चनैः सहितौ (अर्वाक्) पश्चात् (आ) समन्तात् (इन्द्राग्नी) वायुविद्युतौ (सौमनसाय) अनुत्तमसुखाय (यातम्) गमयतः ॥ ४ ॥
भावार्थभाषाः - यदा शिल्पिभिः पवनस्सौदामिनी च कार्य्यसिद्ध्यर्थं संप्रयुज्येते तदैते सर्वसुखलाभाय प्रभवन्ति ॥ ४ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जेव्हा कारागिरांकडून वायू व विद्युत कार्यसिद्धीसाठी कलायंत्राच्या क्रियांनी युक्त केले जातात तेव्हा ते सर्व सुखाच्या प्राप्तीसाठी समर्थ होतात. ॥ ४ ॥