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अव॑न्तु नः पि॒तर॑: सुप्रवाच॒ना उ॒त दे॒वी दे॒वपु॑त्रे ऋता॒वृधा॑। रथं॒ न दु॒र्गाद्व॑सवः सुदानवो॒ विश्व॑स्मान्नो॒ अंह॑सो॒ निष्पि॑पर्तन ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

avantu naḥ pitaraḥ supravācanā uta devī devaputre ṛtāvṛdhā | rathaṁ na durgād vasavaḥ sudānavo viśvasmān no aṁhaso niṣ pipartana ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अव॑न्तु। नः॒। पि॒तरः॑। सु॒ऽप्र॒वा॒च॒नाः। उ॒त। दे॒वी इति॑। दे॒वपु॑त्रे॒ इति॑ दे॒वऽपु॑त्रे। ऋत॒ऽवृधा॑। रथ॑म्। न। दुः॒ऽगात्। व॒स॒वः॒। सु॒ऽदा॒नवः॒। विश्व॑स्मात्। नः॒। अंह॑सः। निः। पि॒प॒र्त॒न॒ ॥ १.१०६.३

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:106» मन्त्र:3 | अष्टक:1» अध्याय:7» वर्ग:24» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:16» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे कैसे हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - (देवपुत्रे) जिनके दिव्यगुण अर्थात् अच्छे-अच्छे विद्वान् जन वा अच्छे रत्नों से युक्त पर्वत आदि पदार्थ पालनेवाले हैं वा जो (ऋतावृधा) सत्य कारण से बढ़ते हैं वे (देवी) अच्छे गुणोंवाले भूमि और सूर्य्य का प्रकाश जैसे (नः) हम लोगों की रक्षा करते हैं, वैसे ही (सुप्रवाचनाः) जिनका अच्छा पढ़ाना और उपदेश है, वे (पितरः) विशेष ज्ञानवाले मनुष्य हम लोगों को (उत) निश्चय से (अवन्तु) रक्षादि व्यवहारों से पालें। शेष मन्त्रार्थ प्रथम मन्त्रार्थ के तुल्य समझना चाहिये ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे दिव्य औषधियों और प्रकाश आदि गुणों से भूमि और सूर्य्यमण्डल सबको सुख के साथ बढ़ाते हैं, वैसे ही आप्त विद्वान् जन सब मनुष्यों को अच्छी शिक्षा और पढ़ाने से विद्या आदि अच्छे गुणों में उन्नति देकर सुखी करते हैं। और जैसे उत्तम रथ आदि पर बैठ के दुःख से जाने योग्य मार्ग के पार सुखपूर्वक जाकर समग्र क्लेश से छूटके सुखी होते हैं, वैसे ही वे उक्त विद्वान् दुष्ट गुण, कर्म और स्वभाव से अलगकर हम लोगों को धर्म के आचरण में उन्नति देवें ॥ ३ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते ।

अन्वय:

देवपुत्रे ऋतावृधा देवी यथा नोऽस्मान्नवतस्तथैव सुप्रवाचनाः पितरोऽस्मानुतावन्तु। अन्यत् पूर्ववत् ॥ ३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अवन्तु) रक्षणादिभिः पालयन्तु (नः) अस्मान् (पितरः) विज्ञानवन्तो मनुष्याः (सुप्रवाचनाः) सुष्ठु प्रवाचनमध्यापनमुपदेशनं च येषां ते (उत) अपि (देवी) दिव्यगुणयुक्ते द्यावापृथिव्यौ भूमिसूर्यप्रकाशौ (देवपुत्रे) देवा दिव्या विद्वांसो दिव्यरत्नादियुक्ताः पर्वतादयो वा पुत्रा पालयितारो ययोस्ते (ऋतावृधा) ये ऋतेन कारणेन वर्धेतां ते (रथं, न०) इति पूर्ववत् ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा दिव्यौषध्यादिभिः प्रकाशादिभिश्च भूमिसवितारौ सर्वान् सुखेन वर्धयतः तथैवाप्ता विद्वांसः सर्वान् मनुष्यान् सुशिक्षाध्यापनाभ्यां विद्यादिसद्गुणेषु वर्धयित्वा सुखिनः कुर्वन्ति। यथा चोत्तमस्य यानस्योपरि स्थित्वा दुःखेन गम्यानां मार्गाणां सुखेन पारं गत्वा समग्रात् क्लेशाद्विमुच्य सुखिनो भवन्ति तथैव ते दुष्टगुणकर्मस्वभावात् पृथक्कृत्याऽस्मान् धर्माचरणे वर्धयन्तु ॥ ३ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे जशी दिव्य औषधी व प्रकाश इत्यादी गुणांनी भूमी व सूर्यमंडळ सर्वांचे सुख वाढविते तसेच आप्त विद्वान सर्व माणसांना चांगल्या प्रकारे शिक्षणाने व अध्यापनाने विद्या इत्यादी चांगल्या गुणांची वाढ करून सुखी करतात व जसे उत्तम रथ इत्यादीमध्ये बसून त्रास न होता संपूर्ण क्लेशांपासून सुटून सुखी होता येते. तसेच वरील विद्वानांनी दुष्ट, गुण, कर्म व स्वभावापासून परावृत्त करून आम्हाला धर्माचरणात लावावे. ॥ ३ ॥