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अ॒मी ये पञ्चो॒क्षणो॒ मध्ये॑ त॒स्थुर्म॒हो दि॒वः। दे॒व॒त्रा नु प्र॒वाच्यं॑ सध्रीची॒ना नि वा॑वृतुर्वि॒त्तं मे॑ अ॒स्य रो॑दसी ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

amī ye pañcokṣaṇo madhye tasthur maho divaḥ | devatrā nu pravācyaṁ sadhrīcīnā ni vāvṛtur vittam me asya rodasī ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒मी इति॑। ये। पञ्च॑। उ॒क्षणः॑। मध्ये॑। त॒स्थुः। म॒हः। दि॒वः। दे॒व॒ऽत्रा। नु। प्र॒ऽवाच्य॑म्। स॒ध्री॒ची॒नाः। नि। व॒वृ॒तुः॒। वि॒त्तम्। मे॒। अ॒स्य। रो॒द॒सी॒ इति॑ ॥ १.१०५.१०

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:105» मन्त्र:10 | अष्टक:1» अध्याय:7» वर्ग:21» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:15» मन्त्र:10


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर ये परस्पर कैसे वर्त्तें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे सभाध्यक्ष आदि सज्जनो ! तुमको जैसे (अमी) प्रत्यक्ष वा अप्रत्यक्ष (उक्षणः) जल सींचने वा सुख सींचनेहारे बड़े (पञ्च) अग्नि, पवन, बिजुली, मेघ और सूर्य्यमण्डल का प्रकाश (महः) अपार (दिवः) दिव्यगुण और पदार्थयुक्त आकाश के (मध्ये) बीच (तस्थुः) स्थिर है और जैसे (सध्रीचीनाः) एक साथ रहनेवाले गुण (देवत्रा) विद्वानों में (नि, वावृतुः) निरन्तर वर्त्तमान हैं, वैसे (ये) जो निरन्तर वर्त्तमान हैं उन प्रजा तथा राजाओं के संगियों के प्रति विद्या और न्याय प्रकाश की बात (नु) शीघ्र (प्रवाच्यम्) कहनी चाहिये। और शेष मन्त्रार्थ प्रथम मन्त्र के समान जानना चाहिये ॥ १० ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य्य आदि घटपटादि पदार्थों में संयुक्त होकर वृष्टि आदि के द्वारा अत्यन्त सुख को उत्पन्न करते हैं और समस्त पृथिवी आदि पदार्थों में आकर्षणशक्ति से वर्त्तमान हैं, वैसे ही सभाध्यक्ष आदि महात्मा जनों के गुणों वा बड़े-बड़े उत्तम गुणों से युक्त मनुष्यों को सिद्ध करके इनसे न्याय और प्रीति के साथ वर्त्तकर निरन्तर सुखी करें ॥ १० ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनरेते परस्परं कथं वर्त्तेरन्नित्युपदिश्यते ।

अन्वय:

हे सभाध्यक्षादयो जना युष्माभिर्यथाऽमी उक्षणः पञ्च महो दिवो मध्ये तस्थुर्यथा च सध्रीचीना देवत्रा निवावृतुस्तथा ये नितरां वर्त्तन्ते तान् प्रजाराजप्रसङ्गिनः प्रति विद्यान्यायप्रकाशवचो नु प्रवाच्यम्। अन्यत् पूर्ववत् ॥ १० ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अमी) प्रत्यक्षाप्रत्यक्षाः (ये) (पञ्च) यथाग्निवायुमेघविद्युत्सूर्य्यमण्डलप्रकाशास्तथा (उक्षणः) जलस्य सुखस्य वा सेक्तारो महान्तः। उक्षा इति महन्नाम०। निघं० ३। ३। (मध्ये) (तस्थुः) तिष्ठन्ति (महः) महतः (दिवः) दिव्यगुणपदार्थयुक्तस्याकाशस्य (देवत्रा) देवेषु विद्वत्सु वर्त्तमानाः (नु) शीघ्रम् (प्रवाच्यम्) अध्यापनोपदेशार्थं विद्याऽऽज्ञापकं वचः (सध्रीचीनाः) सहवर्त्तमानाः (नि) (वावृतुः) वर्त्तन्ते। अत्र वर्त्तमाने लिट्। व्यत्ययेन परस्मैपदम्। तुजादीनां दीर्घोऽभ्यासस्येति दीर्घत्वम्। अन्यत् पूर्ववत् ॥ १० ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्यादयो घटपटादिपदार्थेषु संयुज्य वृष्ट्यादिद्वारा महत्सुखं संपादयन्ति सर्वेषु पृथिव्यादिपदार्थेष्वाकर्षणादिना सहिता वर्त्तन्ते च। तथैव सभाद्यध्यक्षादयो महद्गुणविशिष्टान् मनुष्यान् संपाद्यैतैः सह न्यायप्रीतिभ्यां सह वर्त्तित्वा सुखिनः सततं कुर्युः ॥ १० ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे सूर्यमंडळ इत्यादी सर्व पदार्थात संयुक्त होऊन वृष्टीद्वारे अत्यंत सुख उत्पन्न करतात व संपूर्ण पृथ्वी इत्यादी पदार्थात आकर्षण शक्तीने विद्यमान आहेत तसेच सभाध्यक्ष इत्यादींनी महान अशा विशिष्ट गुणांनी युक्त माणसांना सिद्ध करून त्यांच्याबरोबर न्याय व प्रीतीने वागून सुखी करावे. ॥ १० ॥