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स जा॒तूभ॑र्मा श्र॒द्दधा॑न॒ ओज॒: पुरो॑ विभि॒न्दन्न॑चर॒द्वि दासी॑:। वि॒द्वान्व॑ज्रि॒न्दस्य॑वे हे॒तिम॒स्यार्यं॒ सहो॑ वर्धया द्यु॒म्नमि॑न्द्र ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sa jātūbharmā śraddadhāna ojaḥ puro vibhindann acarad vi dāsīḥ | vidvān vajrin dasyave hetim asyāryaṁ saho vardhayā dyumnam indra ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सः। जा॒तूऽभ॑र्मा। श्र॒त्ऽदधा॑नः। ओजः॑। पुरः॒। वि॒ऽभि॒न्दन्। अ॒च॒र॒त्। वि। दासीः॑। वि॒द्वान्। व॒ज्रि॒न्। दस्य॑वे। हे॒तिम्। अ॒स्य॒। आर्यम्। सहः॑। व॒र्ध॒य॒। द्यु॒म्नम्। इ॒न्द्र॒ ॥ १.१०३.३

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:103» मन्त्र:3 | अष्टक:1» अध्याय:7» वर्ग:16» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:15» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब सेना आदि का अध्यक्ष कैसा हो, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (वज्रिन्) प्रशंसित शस्त्रसमूहयुक्त (इन्द्र) अच्छे-अच्छे पदार्थों के देनेवाले सेना आदि के स्वामी ! जो (जातूभर्मा) उत्पन्न हुए सांसारिक पदार्थों को धारण (श्रद्दधानः) और अच्छे कामों में प्रीति करनेवाले (विद्वान्) विद्वान् आप (अस्य) इस दुष्ट जन की (दासीः) नष्ट होनेहारीसी दासी प्रधान (पुरः) नगरियों को (दस्यवे) दुष्ट काम करते हुए जन के लिये (विभिन्दन्) विनाश करते हुए (व्यचरत्) विचरते हो (सः) वह आप श्रेष्ठ सज्जनों के लिये (हेतिम्) सुख के बढ़ानेवाले वज्र को (आर्य्यम्) श्रेष्ठ वा अति श्रेष्ठों के इस (सहः) बल (द्युम्न) धन वा (ओजः) और पराक्रम को (वर्धय) बढ़ाया करो ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य समस्त डांकू, चोर, लबाड़, लम्पट, लड़ाई करनेवालों का विनाश और श्रेष्ठों को हर्षित कर, शारीरिक और आत्मिक बल का संपादन कर, धन, आदि पदार्थों से सुख को बढ़ाता है, वही सबको श्रद्धा करने योग्य है ॥ ३ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ सेनाद्यध्यक्षः कीदृश इत्युपदिश्यते ।

अन्वय:

हे वज्रिन्निन्द्र यो जातूभर्मा श्रद्दधानो विद्वान् भवानस्य दुष्टस्य दासीः पुरो दस्यवे विभिन्दन् सन् व्यचरत्स त्वं श्रेष्ठेभ्यो हेतिमार्य्यं सहो द्युम्नमोजश्च वर्धय ॥ ३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सः) (जातूभर्मा) यो जातान् जन्तून् बिभर्त्ति सः। अत्र जनीधातोस्तुः प्रत्ययो नकारस्याकारादेशोऽन्येषामपीति दीर्घः। (श्रद्दधानः) सत्कर्मसु प्रीतियुक्तः (ओजः) पराक्रमम् (पुरः) नगरी (विभिन्दन्) विदारयन्सन् (अचरत्) चरति (वि) (दासीः) दासीशीला नगरीः। अत्र दंसेष्टटनौ न आ च। उ० ५। १०। (विद्वान्) (वज्रिन्) प्रशस्तशस्त्रसमूहयुक्त (दस्यवे) दुष्टकर्मकर्त्रे (हेतिम्) सुखवर्धकं वज्रम्। (अस्य) दुष्टस्य (आर्य्यम्) आर्य्याणामर्याणां वा इदम् (सहः) बलम् (वर्धय) अत्रान्येषामपीति दीर्घः। (द्युम्नम्) धनम् (इन्द्र) प्रकृष्टपदार्थप्रद ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - यो मनुष्यो दस्यून्विनाश्य श्रेष्ठान् संहर्ष्य शरीरात्मबलं संपाद्य धनादिभिः सुखानि वर्धयति स एव सर्वैः श्रद्धेयः ॥ ३ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जो माणूस दर्जन, चोर, लबाड, लंपट, लढाई करणाऱ्यांचा विनाश करणारा व श्रेष्ठांना हर्षित करून शारीरिक व आत्मिक बलाचे संपादन करून धन इत्यादी पदार्थांनी सुख वाढवितो त्याच्याबद्दल सर्वांनी श्रद्धा बाळगणे योग्य आहे. ॥ ३ ॥