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यस्याना॑प्त॒: सूर्य॑स्येव॒ यामो॒ भरे॑भरे वृत्र॒हा शुष्मो॒ अस्ति॑। वृष॑न्तम॒: सखि॑भि॒: स्वेभि॒रेवै॑र्म॒रुत्वा॑न्नो भव॒त्विन्द्र॑ ऊ॒ती ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yasyānāptaḥ sūryasyeva yāmo bhare-bhare vṛtrahā śuṣmo asti | vṛṣantamaḥ sakhibhiḥ svebhir evair marutvān no bhavatv indra ūtī ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यस्य॑। अना॑प्तः। सूर्य॑स्यऽइव। यामः॑। भरे॑ऽभरे। वृ॒त्र॒ऽहा। शुष्मः॑। अस्ति॑। वृष॑न्ऽतमः। सखि॑ऽभिः। स्वेभिः॑। एवैः॑। म॒रुत्वा॑न्। नः॒। भ॒व॒तु॒। इन्द्रः॑। ऊ॒ती ॥ १.१००.२

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:100» मन्त्र:2 | अष्टक:1» अध्याय:7» वर्ग:8» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:15» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब ईश्वर और विद्वान् कैसे कर्मवाले हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - (यस्य) जिस परमेश्वर वा विद्वान् सभाध्यक्ष के (भरेभरे) धारण करने योग्य पदार्थ-पदार्थ वा युद्ध-युद्ध में (सूर्य्यस्येव) प्रत्यक्ष सूर्यलोक के समान (वृत्रहा) पापियों के यथायोग्य पाप-फल को देने से धर्म को छिपानेवालों का विनाश करता और (शुष्मः) जिसमें प्रशंसित बल हैं वह (यामः) मर्यादा का होना (अनाप्तः) मूर्ख और शत्रुओं ने नहीं पाया (अस्ति) है (सः) वह (वृषन्तमः) अत्यन्त सुख बढ़ानेवाला तथा (मरुत्वान्) प्रशंसित सेना जनयुक्त वा जिसकी सृष्टि में प्रशंसित पवन है वह (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् ईश्वर वा सभाध्यक्ष सज्जन (स्वेभिः) अपने सेवकों के (एवैः) पाये हुए प्रशंसित ज्ञानों और (सखिभिः) धर्म के अनुकूल आज्ञापालनेहारे मित्रों से उपासना और प्रशंसा को प्राप्त हुआ (नः) हम लोगों के (ऊती) रक्षा आदि व्यवहारों के सिद्ध करने के लिये (भवतु) हो ॥ २ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में श्लेष और उपमालङ्कार हैं। मनुष्यों को यह जानना चाहिये कि यदि सूर्यलोक तथा आप्त विद्वान् के गुण, और स्वभावों का पार दुःख से जानने योग्य है तो परमेश्वर का तो क्या ही कहना है ! इन दोनों के आश्रय के विना किसी की पूर्ण रक्षा नहीं होती, इससे इनके साथ सदा मित्रता रखें ॥ २ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथेश्वरविद्वांसौ कीदृक्कर्माणावित्युपदिश्यते ।

अन्वय:

यस्य भरेभरे सूर्यस्येव वृत्रहा शुष्मो यामोऽनाप्तोऽस्ति स वृषन्तमो मरुत्वानिन्द्रः स्वेभिरेवैः सखिभिरुपसेवितो नः सततमूत्यूतये भवतु ॥ २ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यस्य) परमेश्वरस्याप्तस्य विदुषः सभाध्यक्षस्य वा (अनाप्तः) मूर्खैः शत्रुभिरप्राप्तः (सूर्यस्येव) यथा प्रत्यक्षस्य मार्तण्डस्य लोकस्य तथा (यामः) मर्यादा (भरेभरे) धर्त्तव्ये धर्त्तव्ये पदार्थे युद्धे युद्धे वा (वृत्रहा) तत्तत्पापफलदानेन वृत्रान् धर्मावरकान् हन्ति (शुष्मः) प्रशस्तानि शुष्माणि बलानि विद्यन्तेऽस्मिन् (अस्ति) वर्त्तते (वृषन्तमः) अतिशयेन सुखवर्षकः (सखिभिः) धर्मानुकूलस्वाज्ञापालकैर्मित्रैः (स्वेभिः) स्वकीयभक्तैः (एवैः) प्राप्तैः प्रशस्तज्ञानैः (मरुत्वान्) यस्य सृष्टौ सेनायां वा प्रशस्ता वायवो मनुष्या वा विद्यन्ते सः (नः) (भवतु) (इन्द्रः) परमैश्वर्य्यवान् (ऊती) रक्षणादिव्यवहारसिद्धये ॥ २ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र श्लेषोपमालङ्कारौ। मनुष्यैर्यदि सवितृलोकस्याप्तविदुषश्च गुणान्तो दुर्विज्ञेयोऽस्ति तर्हि परमेश्वरस्य तु का कथा ! नहि खल्वेतयोराश्रयेण विना कस्यचित्पूर्णं रक्षणं संभवति तस्मादेताभ्यां सह सदा मित्रता रक्ष्येति वेद्यम् ॥ २ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात श्लेष व उपमालंकार आहेत. माणसांनी हे जाणले पाहिजे की जर सूर्यलोक व आप्तविद्वानाचे गुण व स्वभाव जाणण्यास कठीण तेथे परमेश्वराची काय कथा? या दोहोंच्या आश्रयाशिवाय कुणाचेही पूर्ण रक्षण होऊ शकत नाही. त्यासाठी त्यांच्याबरोबर सदैव मैत्री करावी. ॥ २ ॥