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ए॒तत्त्यत्त॑ इन्द्र॒ वृष्ण॑ उ॒क्थं वा॑र्षागि॒रा अ॒भि गृ॑णन्ति॒ राध॑:। ऋ॒ज्राश्व॒: प्रष्टि॑भिरम्ब॒रीष॑: स॒हदे॑वो॒ भय॑मानः सु॒राधा॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

etat tyat ta indra vṛṣṇa ukthaṁ vārṣāgirā abhi gṛṇanti rādhaḥ | ṛjrāśvaḥ praṣṭibhir ambarīṣaḥ sahadevo bhayamānaḥ surādhāḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ए॒तत्। त्यत्। ते॒। इ॒न्द्र॒। वृष्णे॑। उ॒क्थम्। वा॒र्षा॒गि॒राः। अ॒भि। गृ॒ण॒न्ति॒। राधः॑। ऋ॒ज्रऽअश्वः॑। प्रष्टि॑ऽभिः। अ॒म्ब॒रीषः॑। स॒हऽदे॑वः। भय॑मानः। सु॒ऽराधाः॑ ॥ १.१००.१७

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:100» मन्त्र:17 | अष्टक:1» अध्याय:7» वर्ग:11» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:15» मन्त्र:17


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह कैसा है, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) परमविद्या ऐश्वर्य से युक्त सभाध्यक्ष ! जो (वार्षागिराः) उत्तम प्रशंसित विद्वान् की वाणियों से प्रशंसित पुरुष (एतत्) इस प्रत्यक्ष (ते) आपके (उक्थम्) प्रशंसा करने योग्य वचन वा काम को सब लोग (अभिगृणन्ति) आपके मुख पर कहते हैं वह और (त्वत्) अगला वा अनुमान करने योग्य आपका (राधः) धन (वृष्णे) शरीर और आत्मा की प्रसन्नता के लिये होता है तथा जो (अम्बरीषः) शब्दशास्त्र के जानने (सहदेवः) विद्वानों के साथ रहने (भयमानः) अधर्माचरण से डरकर उससे अलग वर्त्ताव वर्त्तने और दुष्टों को भय करनेवाले (सुराधाः) जो कि उत्तम-उत्तम धनों से युक्त (ऋज्राश्वः) जिनकी सीधी बड़ी-बड़ी राजनीति हैं और (प्रष्टिभिः) प्रश्नों से पूछे हुए समाधानों को देते हैं, वे हम लोगों को सेवने योग्य कैसे न हों ? ॥ १७ ॥
भावार्थभाषाः - जब विद्वान् उत्तम प्रीति के साथ उपदेशों को करते हैं, तब अज्ञानी जन विश्वास को पा उन उपदेशों को सुन अच्छी विद्याओं को धारणकर धनाढ्य होके आनन्दित होते हैं ॥ १७ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स कथम्भूत इत्युपदिश्यते ।

अन्वय:

हे इन्द्र वार्षागिरा यदेतत्ते तवोक्थमभिगृणन्ति त्यद्राधो वृष्णे जायते। योऽम्बरीषः सहदेवो भयमानः सुराधा ऋज्राश्वो भवान् प्रष्टिभिः पृष्टः समादधाति सोऽस्माभिः कथं न सेवनीयः ॥ १७ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (एतत्) प्रत्यक्षम् (त्यत्) अग्रस्थमानुमानिकं च (ते) तव (इन्द्र) परमविद्यैश्वर्ययुक्त (वृष्णे) शरीरात्मसेचकाय (उक्थम्) प्रशंसनीयं वचनं कर्म वा (वार्षागिराः) वृषस्योत्तमस्य गीर्भिर्निष्पन्नाः पुरुषाः (अभि) आभिमुख्ये (गृणन्ति) वदन्ति (राधः) धनम् (ऋज्राश्वः) ऋज्रा ऋजवोऽश्वा महत्यो नीतयो यस्य सः। अश्व इति महन्ना०। निघं० ३। ३। (प्रष्टिभिः) प्रश्नैः पृष्टः सन् (अम्बरीषः) शब्दविद्यावित्। अत्र शब्दार्थादबिधातोरौणादिक ईषन् प्रत्ययो रुगागमश्च। (सहदेवः) देवैः सह वर्त्तते सः (भयमानः) अधर्माचरणाद्भीत्वा पृथग्वर्त्तमानो दुष्टानां भयङ्करः (सुराधाः) शोभनै राधोभिर्धनैर्युक्तः ॥ १७ ॥
भावार्थभाषाः - यदा विद्वांसः सुप्रीत्योपदेशान् कुर्वन्ति तदाऽज्ञानिनो जना विश्वस्ता भूत्वोपदेशाञ्छ्रुत्वा सुविद्या धृत्वाऽऽढ्या भूत्वाऽऽनन्दिता भवन्ति ॥ १७ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जेव्हा विद्वान प्रेमाने उपदेश करतात तेव्हा अज्ञानी लोक त्यावर विश्वास ठेवून त्या उपदेशांना ऐकून विद्या धारण करून धनाढ्य बनतात व आनंदित होतात. ॥ १७ ॥