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सु॒वि॒वृतं॑ सुनि॒रज॒मिन्द्र॒ त्वादा॑त॒मिद्यशः॑। गवा॒मप॑ व्र॒जं वृ॑धि कृणु॒ष्व राधो॑ अद्रिवः॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

suvivṛtaṁ sunirajam indra tvādātam id yaśaḥ | gavām apa vrajaṁ vṛdhi kṛṇuṣva rādho adrivaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सु॒ऽवि॒वृत॑म्। सु॒निः॒ऽअज॑म्। इन्द्र॑। त्वाऽदा॑तम्। इत्। यशः॑। गवा॑म्। अप॑। व्र॒जम्। वृ॒धि॒। कृ॒णु॒ष्व। राधः॑। अ॒द्रि॒ऽवः॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:10» मन्त्र:7 | अष्टक:1» अध्याय:1» वर्ग:20» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:3» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अगले मन्त्र में इन्द्र शब्द से ईश्वर और सूर्य्यलोक का प्रकाश किया है-

पदार्थान्वयभाषाः - जैसे यह (अद्रिवः) उत्तम प्रकाशादि धनवाला (इन्द्रः) सूर्य्यलोक (सुनिरजम्) सुख से प्राप्त होने योग्य (त्वादातम्) उसी से सिद्ध होनेवाले (यशः) जल को (सुविवृतम्) अच्छी प्रकार विस्तार को प्राप्त (गवाम्) किरणों के (वज्रम्) समूह को संसार में प्रकाश होने के लिये (अपवृधि) फैलाता तथा (राधः) धन को प्रकाशित (कृणुष्व) करता है, वैसे हे (अद्रिवः) प्रशंसा करने योग्य (इन्द्र) महायशस्वी सब पदार्थों के यथायोग्य बाँटनेवाले परमेश्वर ! आप हम लोगों के लिये (गवाम्) अपने विषय को प्राप्त होनेवाली मन आदि इन्द्रियों के ज्ञान और उत्तम-उत्तम सुख देनेवाले पशुओं के (व्रजम्) समूह को (अपावृधि) प्राप्त करके उनके सुख के दरवाजे को खोल तथा (सुविवृतम्) देश-देशान्तर में प्रसिद्ध और (सुनिरजम्) सुख से करने और व्यवहारों में यथायोग्य प्रतीत होने के योग्य (यशः) कीर्ति को बढ़ानेवाले अत्युत्तम (त्वादातम्) आपके ज्ञान से शुद्ध किया हुआ (राधः) जिससे कि अनेक सुख सिद्ध हों, ऐसे विद्या सुवर्णादि धन को हमारे लिये (कृणुश्व) कृपा करके प्राप्त कीजिये॥७॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में श्लेष और लुप्तोपमालङ्कार हैं। हे परमेश्वर ! जैसे आपने सूर्य्यादि जगत् को उत्पन्न करके अपना यश और संसार का सुख प्रसिद्ध किया है, वैसे ही आप की कृपा से हम लोग भी अपने मन आदि इन्द्रियों को शुद्धि के साथ विद्या और धर्म के प्रकाश से युक्त तथा सुखपूर्वक सिद्ध और अपनी कीर्ति, विद्याधन और चक्रवर्त्ति राज्य का प्रकाश करके सब मनुष्यों को निरन्तर आनन्दित और कीर्तिमान् करें॥७॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथेन्द्रशब्देनेश्वरसूर्य्यलोकावुपदिश्येते।

अन्वय:

यथाऽयमद्रिवो मेघवान् सूर्य्यलोकः सुनिरजं त्वादातं तेन शोधितं यशोजलं सुविवृतं सुष्ठु विकाशितं राधो धनं च कृणुष्व करोति, स एव गवां किरणानां व्रजं समूहं चापवृध्युद्घाटयति, तथैव हे अद्रिव इन्द्र जगदीश्वर ! त्वं सुविवृतं सुनिरजं त्वादातं यशो राधो धनं च कृणुष्व कृपया कुरु, तथा हे अद्रिवो मेघादिरचकत्वात् प्रशंसनीय ! त्वं गवां व्रजमपवृधि ज्ञानद्वारमुद्घाटय॥७॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सुविवृतम्) सुष्ठु विकाशितम् (सुनिरजम्) सुखेन नितरां क्षेप्तुं योग्यम् (इन्द्र) महायशः सर्वविभागकारकेश्वर ! सर्वविभक्तरूपदर्शकः सूर्य्यलोको वा (त्वादातम्) त्वया शोधितं, तेन सूर्य्येण वा (इत्) एव (यशः) परमकीर्त्तिसाधकं जलं वा। यश इत्युदकनामसु पठितम्। (निघं०१.१२) (गवाम्) स्वस्वविषयप्रकाशकानां मनआदीन्द्रियाणां किरणानां पशूनां वा। गौरिति पदनामसु पठितम्। (निघं०४.१) इतीन्द्रियाणां पशूनां च ग्रहणम्। गाव इति रश्मिनामसु पठितम्। (निघं०१.५) (अप) धात्वर्थे। (व्रजम्) समूहं ज्ञानं वा (वृधि) वृणु वृणोति वा। अत्र पक्षान्तरे सूर्य्यस्य प्रत्यक्षत्वात्प्रथमार्थे मध्यमः। श्रुशृणुपॄकृवृभ्यश्छन्दसि। (अष्टा०६.४.१०२) अनेन हेर्धिः। (कृणुष्व) कुरु करोति वा। अत्र लडर्थे लोड् व्यत्येनात्मनेपदं च (राधः) राध्नुवन्ति सुखानि येन तद्विद्यासुवर्णादि धनम्। राध इति धननामसु पठितम्। (निघं०२.१०) (अद्रिवः) अद्रिर्मेघः प्रशंसा धनं भूयान् वा विद्यते यस्मिन् तत्सम्बुद्धावीश्वर ! मेघवान् सूर्य्यो वा। अद्रिरिति मेघनामसु पठितम्। (निघं०१.१०) अत्र भूम्न्यर्थे मतुप्॥७॥
भावार्थभाषाः - अत्र (श्लेष)लुप्तोपमालङ्कारौ। हे परमेश्वर ! यथा भवता सूर्य्यादिजगदुत्पाद्य स्वकीर्त्तिः सर्वप्राणिभ्यः सुखं च प्रसिद्धीकृतं तथैव भवत्कृपया वयमपि मन आदीनीन्द्रियाणि शुद्धानि विद्याधर्मप्रकाशयुक्तानि सुखेन संसाध्य स्वकीर्त्तिं विद्याधनं चक्रवर्त्तिराज्यं च सततं प्रकाश्य सर्वान्मनुष्यान्सुखिनः कीर्त्तिमतश्च कारयेमेति॥७॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात श्लेष व लुप्तोपमालंकार आहे. हे परमेश्वरा! जसे तू सूर्य इत्यादी जगत उत्पन्न करून आपले यश व जगातील सर्व सुख दिलेले आहेस. तसेच तुझ्या कृपेने आम्हीही मन व इंद्रियांची शुद्धी करावी व विद्या आणि धर्माच्या प्रकटीकरणाने सुख सिद्ध करावे. आमची कीर्ती, विद्याधन व चक्रवर्ती राज्य प्रकाशित करून सर्व माणसांना निरंतर आनंदित व कीर्तिमान करावे. ॥ ७ ॥