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ज्योति॑र्य॒ज्ञस्य॑ पवते॒ मधु॑ प्रि॒यं पि॒ता दे॒वानां॑ जनि॒ता वि॒भूव॑सुः । दधा॑ति॒ रत्नं॑ स्व॒धयो॑रपी॒च्यं॑ म॒दिन्त॑मो मत्स॒र इ॑न्द्रि॒यो रस॑: ॥

English Transliteration

jyotir yajñasya pavate madhu priyam pitā devānāṁ janitā vibhūvasuḥ | dadhāti ratnaṁ svadhayor apīcyam madintamo matsara indriyo rasaḥ ||

Pad Path

ज्योतिः॑ । य॒ज्ञस्य॑ । प॒व॒ते॒ । मधु॑ । प्रि॒यम् । पि॒ता । दे॒वाना॑म् । ज॒नि॒ता । वि॒भुऽव॑सुः । दधा॑ति । रत्न॑म् । स्व॒धयोः॑ । अ॒पी॒च्य॑म् । म॒दिन्ऽत॑मः । म॒त्स॒रः । इ॒न्द्रि॒यः । रसः॑ ॥ ९.८६.१०

Rigveda » Mandal:9» Sukta:86» Mantra:10 | Ashtak:7» Adhyay:3» Varga:13» Mantra:5 | Mandal:9» Anuvak:5» Mantra:10


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ARYAMUNI

Word-Meaning: - वह परमात्मा (यज्ञस्य) यज्ञ की (ज्योतिः) ज्योति है और (मधु) आनन्दरूप है। प्रियं (पवते) जो उससे प्रेम करते हैं, उन्हें पवित्र करता है। (देवानां) सब लोक-लोकान्तरों का (पिता) पालन करनेवाला और (जनिता) उत्पन्न करनेवाला है (विभूवसुः) और अत्यन्त ऐश्वर्य्यवाला है। (स्वधयोरपीच्यं) तथा द्यावा-पृथिवी के अन्तर्गत (रत्नं) रत्नों को (दधाति) धारण करता है और वह परमात्मा (मदिन्तमः) आनन्दस्वरूप है तथा (मत्सरः) सबको आनन्द देनेवाला है और (इन्द्रियः) ऐश्वर्य्ययुक्त है तथा (रसः) आनन्दस्वरूप है ॥१०॥
Connotation: - इस मन्त्र में परमात्मा को नानाविध रत्नों का धाता, विधाता और निर्माता कथन किया है। अर्थात् वही सृष्टि का धारण करनेवाला है, वही पालन करनेवाला है और वही प्रलय करनेवाला है। इस मन्त्र में “मत्सर” और मदादिक जो नाम आये हैं, वे परमात्मा के गौरव को कथन करते हैं। आधुनिक संस्कृत में मद मत्सरादि नाम बुरे अर्थों में आने लगे हैं। वेद में इनके ये अर्थ न थे। इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि आधुनिक संस्कृत और वैदिक संस्कृत में बड़ा प्रभेद है  ॥१०॥ १३॥
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ARYAMUNI

Word-Meaning: - स परमात्मा (यज्ञस्य) अध्वरस्य (ज्योतिः) तेजोऽस्ति। अपि च (मधु) आनन्दरूपोऽस्ति (प्रियं, पवते) यस्तस्य प्रियङ्करोति तं पवित्रयति। (देवानां) सर्वलोकलोकान्तराणां (पिता) रक्षकः। अपि च (जनिता) जनकः (विभूवसुः) अपि चात्यन्तैश्वर्य्यवान् अस्ति। (स्वधयोः, अपीच्यं) तथा द्यावापृथिव्योरन्तर्गतं (रत्नं) मणिं (दधाति) धारणङ्करोति। अपि च स परमात्मा (मदिन्तमः) आनन्दरूपोऽस्ति। तथा (मत्सरः) सर्वानन्ददायकः। अपि च (इन्द्रियः) ऐश्वर्य्यवान् तथा (रसः) आनन्दस्वरूपोऽस्ति ॥१०॥