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दि॒वो न सानु॑ पि॒प्युषी॒ धारा॑ सु॒तस्य॑ वे॒धस॑: । वृथा॑ प॒वित्रे॑ अर्षति ॥

English Transliteration

divo na sānu pipyuṣī dhārā sutasya vedhasaḥ | vṛthā pavitre arṣati ||

Pad Path

दि॒वः । न । सानु॑ । पि॒प्युषी॑ । धारा॑ । सु॒तस्य॑ । वे॒धसः॑ । वृथा॑ । प॒वित्रे॑ अ॒र्ष॒ति॒ ॥ ९.१६.७

Rigveda » Mandal:9» Sukta:16» Mantra:7 | Ashtak:6» Adhyay:8» Varga:6» Mantra:7 | Mandal:9» Anuvak:1» Mantra:7


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ARYAMUNI

Word-Meaning: - (पवित्रे) उस पात्र में (पिप्युषी) तृप्ति करनेवाली (वेधसः सुतस्य धारा) माता के दूध की या सोमादि रस की धारा (वृथा अर्षति) वृषा ही गिरती है, जो इन्द्रियसंयमी नहीं है। जिस तरह (दिवः न सानु) अन्तरिक्ष से उन्नत शिखर पर मेघ की धारा गिरकर व्यर्थ ही हो जाती है ॥७॥
Connotation: - परमात्मा उपदेश करते हैं कि हे शूरवीर पुरुषों ! तुम संयमी बनो, इन्द्रियारामी मत बनो। इन्द्रियारामी पुरुषों में जो सोमादि रसों की धाराएँ पड़ती हैं, वे मानों इस प्रकार पडती हैं, जिस प्रकार चोटी के ऊपर पड़ता हुआ जल इधर-उधर बह जाता है और उसमें कोई विचित्र भाव उत्पन्न नहीं करता। इसी प्रकार असंयमियों का दुग्धादि रसों का उपभोग करना है। यहाँ चोटी पर जल गिरने के दृष्टान्त से परमात्मा ने स्पष्ट रीति से बोधन कर दिया कि जो पुरुष वीर्य ही का संयम नहीं करते, न वे धीर वीर बन सकते हैं, न वे ज्ञानी विज्ञानी व ध्यानी बन सकते हैं। उक्त सब प्रकार की पदवियों के लिये मनुष्य का संयमी बनना अत्यन्त आवश्यक है। इसी अभिप्राय से योगसूत्र में कहा है कि ‘ब्रह्मचर्यप्रतिष्ठायां वीर्यलाभः’ यो० साध० ३८। ब्रह्मचर्यप्रतिष्ठा अर्थात् इन्द्रियसंयमी बनने से पुरुष को वीर्य का लाभ होता है ॥७॥
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ARYAMUNI

Word-Meaning: - (पवित्रे) तस्मिन् पात्रे (पिप्युषी) तर्पयित्री (वेधसः सुतस्य धारा) मातुर्दुग्धस्य धारा वा सोमादिरसानां धारा (वृथा अर्षति) वृथैव पतति यः तद्धारापात्ररूपो मनुष्यो संयमी न भवति यथा (दिवः न सानु) अन्तरिक्षात् पर्वतोपरि पतिता मेघधारा वृथैव भवति ॥७॥