Go To Mantra

अव्यो॒ वारे॑भिः पवते॒ सोमो॒ गव्ये॒ अधि॑ त्व॒चि । कनि॑क्रद॒द्वृषा॒ हरि॒रिन्द्र॑स्या॒भ्ये॑ति निष्कृ॒तम् ॥

English Transliteration

avyo vārebhiḥ pavate somo gavye adhi tvaci | kanikradad vṛṣā harir indrasyābhy eti niṣkṛtam ||

Pad Path

अव्यः॑ । वारे॑भिः । प॒व॒ते॒ । सोमः॑ । गव्ये॑ । अधि॑ । त्व॒चि । कनि॑क्रदत् । वृषा॑ । हरिः । इन्द्र॑स्य । अ॒भि । ए॒ति॒ । निः॒ऽकृ॒तम् ॥ ९.१०१.१६

Rigveda » Mandal:9» Sukta:101» Mantra:16 | Ashtak:7» Adhyay:5» Varga:3» Mantra:6 | Mandal:9» Anuvak:6» Mantra:16


Reads times

ARYAMUNI

Word-Meaning: - (हरिः) उक्त परमात्मा (इन्द्रस्य) कर्मयोगी के (निष्कृतम्) सद्गुणसम्पन्न अन्तःकरण को (अभ्येति) प्राप्त होता है, (वृषा) वह सब कामनाओं की वर्षा करनेवाला (गव्ये अधित्वचि) इन्द्रियों के अधिष्ठाता मन में स्थिर होकर (कनिक्रदत्) गर्जता हुआ (पवते) रक्षा करता है, (सोमः) वह सर्वोत्पादक परमात्मा (अव्यः) जो सर्वरक्षक है, वह (वारेभिः) पवित्र सद्भावों से सन्मार्गानुयायियों की रक्षा करता है ॥१६॥
Connotation: - यहाँ कई एक लोग (गव्ये अधित्वचि) के अर्थ गोचर्म के करते हैं, ऐसा करना वेद के आशय से सर्वथा विरुद्ध है। न केवल वेदाशय से विरुद्ध है, किन्तु प्रसिद्धि से भी विरुद्ध है, क्योंकि अधित्वचि के अर्थ गोचर्म पर गर्जना किये गये हैं और गोचर्म पर गर्जना अनुभव से सर्वथा विरुद्ध है। इस अधित्वचि के अर्थ मनरूप अधिष्ठाता के ही ठीक हैं, किसी अन्य वस्तु के नहीं ॥१६॥ यह १०१ वाँ सूक्त और तीसरा वर्ग समाप्त हुआ ॥
Reads times

ARYAMUNI

Word-Meaning: - (हरिः) परमात्मा (इन्द्रस्य) कर्मयोगिनः (निष्कृतं) संस्कृतान्तःकरणम् (अभि एति) आप्नोति (वृषा) सर्वकामप्रदः सः (गव्ये, अधि, त्वचि) इन्द्रियाधिष्ठातरि मनसि स्थिरो भूत्वा (कनिक्रदत्) गर्जन् (पवते) रक्षति (अव्यः) रक्षकः (सोमः) परमात्मा (वारेभिः) पवित्रभावैः स्वभक्तान् रक्षति ॥१६॥ इत्येकशततमं सूक्तं तृतीयो वर्गश्च समाप्तः ॥