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यद॒न्तरि॑क्षे॒ यद्दि॒वि यत्पञ्च॒ मानु॑षाँ॒ अनु॑ । नृ॒म्णं तद्ध॑त्तमश्विना ॥

English Transliteration

yad antarikṣe yad divi yat pañca mānuṣām̐ anu | nṛmṇaṁ tad dhattam aśvinā ||

Pad Path

यत् । अ॒न्तरि॑क्षे । यत् । दि॒वि । यत् । पञ्च॑ । मानु॑षान् । अनु॑ । नृ॒म्णम् । तत् । ध॒त्त॒म् । अ॒श्वि॒ना॒ ॥ ८.९.२

Rigveda » Mandal:8» Sukta:9» Mantra:2 | Ashtak:5» Adhyay:8» Varga:30» Mantra:2 | Mandal:8» Anuvak:2» Mantra:2


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SHIV SHANKAR SHARMA

राजा को सर्वस्थान से प्रजापुष्ट्यर्थ धन उपार्जनीय है, यह शिक्षा इससे देते हैं।

Word-Meaning: - (अश्विना) हे अश्वयुक्त राजा तथा राज्ञी ! (अन्तरिक्षे) मध्यलोक में (यत्) जो (नृम्णम्) मनुष्यहितकारी धन है (दिवि) उपरिष्ठ लोक में (यत्) जो धन है और (पञ्च) पाँच (मानुषान्+अनु) पाँच प्रकार के मनुष्यों में अर्थात् इस मर्त्यलोक में (यत्) जो धन है, (तत्) उन तीन प्रकार के धनों को (धत्तम्) अपने देश में आपत्ति से प्रजाओं को बचाने के लिये स्थापित कीजिये ॥२॥
Connotation: - राजा को उचित है कि प्रजाओं के अभ्युदय के लिये सर्वविध धन स्वदेश में स्थापित करें ॥२॥
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ARYAMUNI

Word-Meaning: - (अश्विना) हे व्यापक (यत्, नृम्णम्) जो धन (अन्तरिक्षे) अन्तरिक्षलोक में (यत्, दिवि) जो द्युलोक में (यत्, पञ्च, मानुषान्, अनु) जो पाँच मनुष्य अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र तथा निषाद में है (तत्, धत्तम्) वह इस प्रजा को दें ॥२॥
Connotation: - हे सर्वत्र प्रसिद्ध सभाध्यक्ष तथा सेनाध्यक्ष ! आप ऐश्वर्य्यसम्पन्न होने के कारण प्रजापालन करने में समर्थ हैं, सो हे भगवन् ! उक्त स्थानों से धन लेकर धनहीन प्रजा को सम्पन्न करें ॥२॥
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SHIV SHANKAR SHARMA

सर्वस्मात् स्थानात् प्रजापुष्ट्यर्थं राजभिर्धनमुपार्जनीयमिति द्वितीया शिक्षा।

Word-Meaning: - हे अश्विना=अश्वयुक्तौ राजानौ। अश्विनी च अश्वीचेत्यश्विनौ राज्ञी राजा चेत्यर्थः। अन्तरिक्षे=मध्यलोके। मनुष्यहितं यद्धनमस्ति। दिवि=द्योतनात्मके द्युलोके=उत्तमे सूर्य्यलोके। यद्धनमस्ति। पुनः। पञ्चसंख्याकान् मानुषान्=मनुष्यान्। अनु=मनुष्यलोके इत्यर्थः। यद्धनमस्ति। पञ्चविधा मनुष्याः सन्तीति वेदेन प्रतिपाद्यते। तत् त्रिविधम्। नृम्णम्=धनम्। इह स्वदेशे। धत्तम्=स्थापयतमापदि प्रजारक्षायै ॥२॥
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ARYAMUNI

Word-Meaning: - (अश्विना) हे अश्विनौ ! (यत्, नृम्णम्) यत् धनम् (अन्तरिक्षे) अन्तरिक्षलोके (यत्, दिवि) यद्युलोके (यत्, पञ्चमानुषान्, अनु) यत् ब्राह्मणक्षत्रियविट्शूद्रनिषादान् पञ्चविधमानुषान् अनु (तत्, धत्तम्) तदस्यै प्रजायै दत्तम् ॥२॥