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गुहा॑ स॒तीरुप॒ त्मना॒ प्र यच्छोच॑न्त धी॒तय॑: । कण्वा॑ ऋ॒तस्य॒ धार॑या ॥

English Transliteration

guhā satīr upa tmanā pra yac chocanta dhītayaḥ | kaṇvā ṛtasya dhārayā ||

Pad Path

गुहा॑ । स॒तीः । उप॑ । त्मना॑ । प्र । यत् । शोच॑न्त । धी॒तयः॑ । कण्वाः॑ । ऋ॒तस्य॑ । धार॑या ॥ ८.६.८

Rigveda » Mandal:8» Sukta:6» Mantra:8 | Ashtak:5» Adhyay:8» Varga:10» Mantra:3 | Mandal:8» Anuvak:2» Mantra:8


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SHIV SHANKAR SHARMA

हृदय से उत्थित वाणी पुनः पुनः मननीय है, यह इससे दिखलाते हैं।

Word-Meaning: - हे इन्द्र ! (गुहा) हम लोगों के हृदयरूप गुहा में (सतीः) विद्यमान या उत्पन्न होती हुई (यत्) जो (धीतयः) विज्ञान वा क्रियाएँ हैं, वे (त्मना) स्वयमेव (उप) आत्मा के निकट पहुँचकर (प्र+शोचन्त) अतिशय दीप्यमान होती हैं अर्थात् अन्तःकरण में जो विषय प्रस्फुरित और आत्मसंयोग से दीप्तिमान् होते हैं, उनको (कण्वाः) हम स्तुति पाठकगण (ऋतस्य) सत्यरूप क्षुर की (धारया) धारा से पुनः मिश्रित करते हैं, बाह्यसत्य से मिलाकर देखते हैं। यद्वा हृदय की बातों को (ऋतस्य+धारया) प्राकृत नियमों की धारा से मिलाते हैं, तब उसे कार्य्य में लाते हैं ॥८॥
Connotation: - सर्व विद्याएँ, सर्व विचार, सर्व धार्मिक, सामाजिक और राज्य सम्बन्धी नियम विद्वानों के हृदय से निकलते हैं। पण्डितगण उन-२ विचारों की वारंवार परीक्षा और चिन्तन करते हैं। दूसरों के समीप कहते हैं। उन्हें बहुत तरह से विचारकर कार्य में लगाते हैं। वैसे ही अन्य जन भी करें। यह शिक्षा इससे देते हैं ॥८॥
Footnote: धर्म के लक्षण में कहा गया है कि “स्वस्य च प्रियमात्मनः” “हृदयेनाभ्यनुज्ञातः” “प्रमाणमन्तःकरणवृत्तयः” जो अपने आत्मा के प्रिय हो। हृदय जिस बात की ओर झुका हुआ हो। सत्यपुरुषों की अन्तःकरण की प्रवृत्ति भी धर्म में प्रमाण होती है। ऐसी-२ बातें बहुधा पाई जाती हैं। प्रश्न यह होता है कि अन्तःकरण की प्रवृत्ति का कोई ठिकाना नहीं, क्योंकि परिस्थिति, परिवार, शिक्षा, देश और काल आदि की अपेक्षा के अनुसार अन्तःकरण में प्रस्फुरण होता है। सत्पुरुषों तथा दुष्टों का अन्तःकरण बहुत ही भिन्न होता है। मुसलमान और हिन्दू के विचार में बहुत अन्तर पड़ जाता है इत्यादि कारणवश वेद शिक्षा देता है कि जो कुछ हृदयरूप गुहा में प्रस्फुरण हो, उसको ऋत=सत्यशास्त्र या प्राकृत नियम से भी मिला लिया करो, अच्छे विद्वानों से भी जिज्ञासा कर लो, तब तदनुसार वर्त्ताव करो। एक बात और भी स्मरणीय है कि महान् पुरुष का अन्तःकरण स्वतः ऋतंभर=सत्यग्राही बनता जाता है। ऐसे महापुरुष के लिये अन्यान्य जिज्ञासा की आवश्यकता नहीं होती। ऐसे ही महात्मा के विचार के कारण देशों में उत्तरोत्तर नवीन आविष्कार होता रहता है ॥८॥
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ARYAMUNI

अब सत्याश्रित कर्म करनेवाले को उत्तम फल की प्राप्ति कथन करते हैं।

Word-Meaning: - (यत्) जो (धीतयः) कर्म (गुहा, सतीः) गुहा में विद्यमान हैं, वे (त्मना) स्वयं परमात्मा से (उप) जाने हुए (प्रशोचन्त) भासित हो रहे हैं, इससे (कण्वाः) उसके माहात्म्य को जाननेवाले विद्वान् (ऋतस्य, धारया) सत्य के प्रवाह से उसका सेवन करते हैं ॥८॥
Connotation: - जो कर्म हमारी हृदयरूप गुहा में विद्यमान हैं अर्थात् जो प्रारब्ध कर्म हैं, उन सबको परमात्मा भले प्रकार जानते हैं, क्योंकि परमात्मा मनुष्य के बाहर-भीतर सर्वत्र विराजमान हैं, इसलिये विद्वान् पुरुष सदैव सत्य के आश्रित होकर कर्म करते हैं, ताकि वह शुभ फल के भागी हों, अतएव शुभफल की कामनावाले प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है कि वह परमात्मा का महत्त्व जानते हुए प्रत्येक कर्म सत्य के आश्रित होकर करें, ताकि उनको उत्तम फल की प्राप्ति हो ॥८॥
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SHIV SHANKAR SHARMA

हृदयोत्था वाणी भूयो भूयो मननीयेति दर्शयति।

Word-Meaning: - हे इन्द्र ! गुहा=गुहायामस्माकं हृदयगुहायाम्। सतीर्भवन्त्यो यद् या धीतयः=विज्ञानानि कर्माणि वा। त्मना=आत्मना=स्वयमेव। उप=समीपे=आत्मनो निकटे। प्रशोचन्त=प्रकर्षेण शोचन्ते दीप्यन्ते। ता धीतीः। वयं कण्वाः=ग्रन्थकर्त्तारः। ऋतस्य=सत्यस्य=सत्यक्षुरस्य। धारया=मिश्रयामः। इति शेषः ॥८॥
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ARYAMUNI

अथ सत्याश्रित उत्तमकर्मफलं लभत इति कथ्यते।

Word-Meaning: - (यत्) यानि च (धीतयः) कर्माणि (गुहा, सतीः) गुहायां विद्यमानानि (त्मना) स्वयमेव परमात्मना (उप) उपलभ्यमानानि (प्रशोचन्त) प्रदीप्यन्ते अतः (कण्वाः) माहात्म्यज्ञाः (ऋतस्य, धारया) सत्यस्य अविच्छेदेन तं सेवन्ते ॥८॥