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मन्द॑स्वा॒ सु स्व॑र्णर उ॒तेन्द्र॑ शर्य॒णाव॑ति । मत्स्वा॒ विव॑स्वतो म॒ती ॥

English Transliteration

mandasvā su svarṇara utendra śaryaṇāvati | matsvā vivasvato matī ||

Pad Path

मन्द॑स्व । सु । स्वः॑ऽनरे । उ॒त । इ॒न्द्र॒ । श॒र्य॒णाऽव॑ति । मत्स्व॑ । विव॑स्वतः । म॒ती ॥ ८.६.३९

Rigveda » Mandal:8» Sukta:6» Mantra:39 | Ashtak:5» Adhyay:8» Varga:16» Mantra:4 | Mandal:8» Anuvak:2» Mantra:39


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SHIV SHANKAR SHARMA

मेरे हृदयप्रदेश में सर्वदा इन्द्र बसे, यह प्रार्थना इस ऋचा से की जाती है।

Word-Meaning: - (इन्द्र) हे परमदेव अविनश्वर ईश ! (उत) और तू (शर्य्यणा१वति) मेरे इस विनश्वर (स्व२र्णरे) हृदयप्रदेश में (सु) शोभनरीति से (मन्दस्व) निवास करके आनन्दित कर तथा (विवस्वतः) मुझ सेवक की (मती) बुद्धि को (मत्स) आह्लादित कर। यद्वा (इन्द्र) हे परमदेव ! (उत) और (शर्यणावति) बुद्धिमान् (स्व२र्नरे) सुखों को पहुँचानेवाले पुरुष में निवास कर (सु) शोभन रीति से (मन्दस्व) आनन्दित हो और सेवकों को आनन्दित कर (विवस्वतः) सेवक जनकी (मती) मति से (मत्स) आह्लादित हो ॥३९॥
Connotation: - शुद्ध आचरणों तथा व्यवहारों से परमात्मा को प्रसन्न करने की चेष्टा करो। क्षुद्रदृष्टि पुरुष जैसे मनुष्यों से डरते हैं, वैसे ईश्वर नहीं ॥
Footnote: १−शर्यणावान्−एक पक्ष में इसका अर्थ विनाशवान् है, क्योंकि शृ हिंसायां धातु से “शर्यणा” बनता है। शर्यणावान्−द्वितीय पक्ष में शर्यणावान् शब्द बुद्धिमान् के अर्थ में है। जो पाप को विनष्ट करे, यद्वा जिससे दुष्कृत विनष्ट हो, वह शर्यणा सुमति। २−स्वर्नर्=प्रजाओं में सुख पहुँचानेवाला इत्यादि ऊहा है। स्वर्नर्=हृदयप्रदेश, क्योंकि जो सुखों को पहुँचावे। हृदय से ही सब सुख उत्पन्न होते हैं, ऐसा मन्तव्य ऋषियों का है। यद्यपि यह हृदय सुखमय है, तथापि शर्यणावान् है, अतः हे इन्द्र तेरे निवास से यह पवित्र होगा, इत्यादि आशय है ॥३९॥
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ARYAMUNI

Word-Meaning: - (उत) और (इन्द्र) हे परमात्मन् ! (शर्यणावति, स्वर्णरे) अन्तरिक्ष के समीप में होनेवाले सूर्यादि लोकों में अपने उपासकों को (सुमन्दस्व) सुन्दर तृप्ति करें और (विवस्वतः) उपासक की (मती) स्तुति से (मत्स्व) स्वयं तृप्त हों ॥३९॥
Connotation: - हे परमेश्वर ! अन्तरिक्ष के समीपवर्ती लोकलोकान्तरों में अपने उपासकों को सब प्रकार की अनुकूलता प्रदान करें और उनकी उपासना से आप प्रसन्न हों, ताकि उपासक सदैव अपना कल्याण ही देखें, यह प्रार्थना है ॥३९॥
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SHIV SHANKAR SHARMA

मम हृदयप्रदेशे सर्वदा वसत्विन्द्र इत्यनया प्रार्थ्यते।

Word-Meaning: - हे इन्द्र ! उतापि च। त्वं स्वर्णरे=हृदयप्रदेशे। सु=शोभनम्। मन्दस्व=तत्रोषित्वा मां हर्षय। कीदृशे स्वर्णरे। शर्यणावति=विनाशवति। स्वः सुखानि नृणाति नयति यत् तत्स्वर्णरम्। हृदयादेव सर्वाणि सुखानि जायन्त इत्यामनन्त पृष्टयः। यद्यपि सुखमयमेतत्स्थानं तथापि विनश्वरमेवेति शर्यणावच्छब्देन द्योत्यते। शर्यणा=विनाशः। शृ हिंसायाम्। या शीर्य्यते हिंस्यते विनश्यति सा शर्यणा। हे इन्द्र तव निवासे न तद्धृदयं पवित्रं भविष्यतीति प्रार्थ्यते। अपि च। विवस्वतः=सर्वभावेन परिचरितो मम। मती=मम बुद्धिम्। मत्स=मादय=आनन्दय। मतीत्यत्र सुपां सुलुगिति पूर्वसवर्णदीर्घः। यद्वा। शर्यणावति=बुद्धिमति। शर्यणा=बुद्धिः, या शारयति घातयति पापं सा शर्यणा। यद्वा। यया शीर्यन्ते विशीर्यन्ते दुष्कृतानि सा शर्यणा सुमतिः। सा प्रशस्ताऽस्यास्तीति शर्यणावान्। तस्मिन्। स्वर्णरे=स्वः सुखानां नरे नेतरि जने। हे इन्द्र ! सुमन्दस्व शोभनं हृष्य। तथा। विवस्वतः=सेवकस्य। मती=सुमत्या मत्स आनन्द ॥३९॥
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ARYAMUNI

Word-Meaning: - (इन्द्र) हे परमात्मन् ! (उत) अथ (शर्यणावति, स्वर्णरे) अन्तरिक्षसमीपस्थे स्वः (सुमन्दस्व) सुष्ठु तर्पय (विवस्वतः) उपासकस्य (मती, मत्स्व) स्तुत्या स्वयं तृप्यताम् ॥३९॥