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इन्द्रो॑ म॒ह्ना रोद॑सी पप्रथ॒च्छव॒ इन्द्र॒: सूर्य॑मरोचयत् । इन्द्रे॑ ह॒ विश्वा॒ भुव॑नानि येमिर॒ इन्द्रे॑ सुवा॒नास॒ इन्द॑वः ॥

English Transliteration

indro mahnā rodasī paprathac chava indraḥ sūryam arocayat | indre ha viśvā bhuvanāni yemira indre suvānāsa indavaḥ ||

Pad Path

इन्द्रः॑ । म॒ह्ना । रोद॑सी॒ इति॑ । प॒प्र॒थ॒त् । शवः॑ । इन्द्रः॑ । सूर्य॑म् । अ॒रो॒च॒य॒त् । इन्द्रे॑ । ह॒ । विश्वा॑ । भुव॑नानि । ये॒मि॒रे॒ । इन्द्रे॑ । सु॒वा॒नासः॑ । इन्द॑वः ॥ ८.३.६

Rigveda » Mandal:8» Sukta:3» Mantra:6 | Ashtak:5» Adhyay:7» Varga:26» Mantra:1 | Mandal:8» Anuvak:1» Mantra:6


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SHIV SHANKAR SHARMA

परमात्मा ही जगत् का स्रष्टा है, यह शिक्षा इससे देते हैं।

Word-Meaning: - (इन्द्रः) इन्द्रवाच्य परमात्मा (शवः) महाबल के (मह्ना) महत्त्व से अर्थात् स्वमहिमा की विभूति से (रोदसी१) द्यावापृथिवी को (पप्रथत्) विस्तीर्ण करता है (इन्द्रः) ही (सूर्य्यम्) सूर्य्य को (अरोचयत्) दीप्त करता है। (इन्द्रे+ह) इन्द्र में ही (विश्वा) निखिल (भुवनानि) पृथिवी आदि महाभूत तथा समस्त उत्पन्न वस्तु (येमिरे) स्थापित हैं। (इन्दवः) परमैश्वर्य्यसम्पन्न नृप आदि, यद्वा समस्त सोमलता आदि वनस्पति, यद्वा दातृगण, यद्वा विद्वद्गण (इन्द्रे) परमात्मा के निमित्त ही (सुवानासः) शुभकर्म करते हुए और फलवान् होते हुए देखे जाते हैं।
Connotation: - जिसने सब बनाया है और जो सबको पालता है, जिसमें सब महाभूत और प्राणी सविकाश स्थित हैं, वह कैसा होगा, इसको पुनः-२ विचारो ॥६॥
Footnote: १−रोदसी=द्युलोक और पृथिवीलोक इन दोनों का एक नाम रोदसी है। आचार्य्यगण इसकी व्युत्पत्ति अनेक प्रकार से करते हैं। (रुन्धः परस्परम्) परस्पर एक दूसरे को रोकते हैं अर्थात् अपने आकर्षण से एक दूसरे को पकड़े हुए स्थित हैं, इस हेतु रोदसी कहाते हैं। यद्वा (रुदन्ति प्राणिनो यत्र) जिन दोनों लोकों में प्राणिगण रो रहे हैं अर्थात् जिस प्रकार यह लोक दुःखमय है, उसी प्रकार सम्पूर्ण अन्यान्य लोक भी। यद्वा (राध्येते) विद्वद्गण जिनकी आराधना करते हैं अर्थात् जिन दोनों लोकों के गुणों का गान पण्डित करते हैं, वे रोदसी। यद्वा रोध नाम तट का है। जिनमें तट हो अर्थात् यद्यपि यह सम्पूर्ण जगत् अनन्त मालूम होता है, तथापि यह सीमाबद्ध है। इत्यादि ॥६॥
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ARYAMUNI

अब कर्मयोगी के बल का महत्त्व वर्णन करते हैं।

Word-Meaning: - (इन्द्रः) कर्मयोगी (शवः, मह्ना) बल की महिमा से (रोदसी) पृथिवी तथा द्युलोक को (पप्रथत्) व्याप्त करता है (इन्द्रः) कर्मयोगी (सूर्यं, अरोचयत्) सूर्यप्रभा को सफल करता है (इन्द्रे, ह) कर्मयोगी में ही (विश्वा, भुवनानि) सम्पूर्ण प्राणिजात (येमिरे) नियमन को प्राप्त होता है (सुवानासः) सिद्ध किये हुए (इन्दवः) भोजनपानार्ह पदार्थ (इन्द्रे) कर्मयोगी को ही प्राप्त होते हैं ॥६॥
Connotation: - इस मन्त्र में कर्मयोगी की महिमा वर्णन की गई है कि वह अपनी शक्ति द्वारा पृथिवी तथा द्युलोक की दिव्य दीप्तियों से लाभ उठाता है और वही सूर्य्यप्रभा को सफल करता अर्थात् मूर्खों में विद्वत्व का उत्पादन करके सूर्य्योदय होने पर स्व−स्व कार्य्य में प्रवृत्त करता है अथवा अपनी विद्याद्वारा सूर्य्यप्रभा से अनेक कार्य्य सम्पादन करके लाभ उठाता है, कर्मयोगी ही सबको नियम में रखता और उत्तमोत्तम पदार्थों का भोक्ता कर्मयोगी ही होता है।तात्पर्य्य यह है कि जिस देश का नेता विद्वान् होता है, उसी देश के मानव सूर्य्यलोक, द्युलोक तथा पृथ्वीलोक की दिव्य दीप्तियों से लाभ उठा सकते हैं, इसी अभिप्राय से यहाँ सूर्य्यादिकों का प्रकाशक कर्मयोगी को माना है।सायणाचार्य्य इस मन्त्र का यह अर्थ करते हैं कि स्वर्भानु=राहु से ग्रसे हुए सूर्य्य को इन्द्र ही प्रकाश देता है। अब इस अर्थ में “इन्द्र” का विवेचन करना आवश्यक है कि इन्द्र का क्या अर्थ है ? यदि इन्द्र के अर्थ सूर्य्य माने जाएँ तो आत्माश्रय दोष लगता है अर्थात् अपना प्रकाशक आप हुआ, यदि “इन्द्र” शब्द के अर्थ विद्युत् लेवें तो फिर राहु का ग्रसना और उसको मारकर इन्द्र का प्रकाश करना क्या ? यदि इसके अर्थ देवविशेष लिये जाएँ तो ऐसी कोई कथा वेद, ब्राह्मण, उपनिषद् तथा पुराणों तक में भी नहीं पाई जाती, जिसमें इन्द्र देवता ने राहु मारकर सूर्य्य को छुड़ाया हो। अधिक क्या, इस प्रकार की मनगढन्त कथाओं का उपन्यास करके सायणाचार्य्य ने राहु का मारना लिखा है, जो सर्वथा असंगत है। सायण का ही अनुकरण करके विलसन, ग्रिफिथ आदि विदेशी भाष्यकार भी ऐसे ही अर्थ करते हैं, जो असंगत हैं। सत्यार्थ यही है कि “इन्दति योगादिना परमैश्वर्य्यं प्राप्नोतीतीन्द्रः”=जो योगादि साधनों से परमैश्वर्य्य को प्राप्त हो उसका नाम “इन्द्र” है। इस प्रकार यह नाम यहाँ कर्मयोगी का है, किसी देवविशेष का नहीं।आजकल लोग नवग्रहों के नव मन्त्र मानते हैं, परन्तु उनका अर्थ ग्रहों का नहीं निकलता और न उनका अर्थ सायण वा महीधर ने ही ग्रहों का किया है। उक्त दोनों आचार्य्य उन मन्त्रों का अर्थ इस प्रकार करते हैं किः− (१)−आकृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्यं च। हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन्॥ ऋग्० १।३५।२ अर्थ−सविता देवता कृष्णवर्ण अन्तरिक्षमार्ग से वार-वार आवर्तन करता हुआ देवता तथा मनुष्यों को अपने-अपने कर्मों में लगाता और सब भुवनों को देखता हुआ सुवर्णमय रथ से हमारे समीप आता है, “सायण”॥ (२)−“इमं देवा आसपत्न सुवध्वम्” यजु० ९।४०=हे सवितादिक देवताओ ! आप इस यजमान को शत्रुरहित, महान्, क्षात्रबल, महान् ज्येष्ठत्व, महान् जनराज्य और आत्मबल के लिये समर्थ करें। यह यजमान अमुक पिता का पुत्र अमुक माता का पुत्र और इन प्रजाओं का स्वामी है। हे कुरुपाञ्चाल निवासी प्रजाओ ! यह खदिरवर्मा तुम्हारा राजा हो और हम ब्राह्मणों का सोम चन्द्रमा वा सोमलता राजा हो, “महीधर”॥ (३)−“अग्निर्मूर्धा दिवः ककुत्पतिः” यजु० ३।१२=यह अग्नि द्युलोक का मूर्धारूप तथा ककुत्=शिखररूप और पृथ्वी का पालक है तथा जलों के सारभूत अन्न को बढ़ाता है॥ (४)−“उद्बुध्यस्वाग्ने प्रतीजागृहि त्व०” यजु० १५।५४=हे अग्ने ! आप सावधान हों और यजमान को सावधान करके इष्टपूरक कर्मों में लगाएँ और स्वयं लगें, हे विश्वेदेव ! आप और यजमान सबसे ऊँचे सूर्य्यलोक में चिरकाल तक रहें॥ (५)−“बृहस्पते अतियदर्यः” ऋग्० २।२३।१५=हे सत्य से उत्पन्न बृहस्पते ! जिस ब्रह्मवर्चस् की श्रेष्ठ ब्राह्मण अर्चा करता है, जो मनुष्यों में शोभित हो रहा है, जो अपने बलों से दीप्त कर देता है उस चित्री ब्रह्मवर्चसरूप धन को मुझे दीजिये॥ (६)−“अन्नात्परिस्रुतो रसम०” यजु० १९।७५=प्रजापति परिस्रुत अन्न से रसों को पी गया और सब ब्रह्माण्ड को वशीभूत कर लिया इत्यादि॥ (७)−“शं नो देवीः” ऋग्० १०।९।४=दिव्यजल हमारे अभिष्टि=यज्ञ, पान तथा कल्याण के लिये हों और आये हुए रोगों का शमन तथा न आये हुओं को दूर करें॥ (८)−“कया नश्चित्र आ भुवत्” ऋग्० ४।३१।१=मेरा मित्र इन्द्र किस तृप्ति से अथवा किस प्रज्ञायुक्त कर्म से मेरे अभिमुख हो॥ (९)−“केतुं कृण्वन्नकेतवे” ऋग्० १।६।३=हे मनुष्यो ! इस आश्चर्य्य को देखो कि यह सूर्य प्रातःकाल में अज्ञानियों को ज्ञान उत्पन्न करता हुआ और रूपरहित को रूपवान् करता हुआ अपनी दाह किरणों से युक्त प्रतिदिन उत्पन्न होता है॥इत्यादि लेखों से प्रतीत होता है कि सायणादि भाष्यकारों की दृष्टि में भी जो नवग्रहों का अस्तित्व वेदमन्त्रों से सिद्ध किया जाता है, वह ठीक नहीं। अस्तु, सायण तो भला महीधर से कुछ प्राचीन हैं, महीधराचार्य्य ने भी “शन्नो देवीरभिष्टय” आदि मन्त्रों से शनैश्चर आदि ग्रह सिद्ध नहीं किये, किन्तु “शं” को कल्याणार्थक मानकर जल से शुद्धि सिद्ध की है। अधिक क्या, कोई भी संस्कृतवेत्ता उक्त मन्त्रों से शनैश्चर आदि ग्रहों की सिद्धि नहीं कर सकता, पर स्मरण रहे कि अन्धविश्वास और ज्ञान का इतना विरोध है कि जिन लोगों के अन्तःकरण में उक्त तर्कहीन विश्वास ने प्रवेश किया, उन्होंने पद-पदार्थ से काम न लेकर यह मान लिया कि “शन्नो देवीरभिष्टय” शनैश्चर ग्रह को ही सिद्ध करता है। हमारे विचार में वेदों की तो कथा ही क्या, किन्तु गणितज्योतिष में भी इन ग्रहरूपी देवताओं का नाम तक नहीं। इससे प्रतीत होता है कि फलितज्योतिष के समय में, जो बहुत आधुनिक है, उसमें आकर इन ग्रहरूपी देवताओं की कल्पना लोगों को सूझी, जिस कल्पना से आज शनैश्चरादि ग्रहों से ग्रस्त भारतभर कल्प रहा है ॥६॥
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SHIV SHANKAR SHARMA

परमात्मैव जगतः स्रष्टास्तीति शिक्षते।

Word-Meaning: - इन्द्रः=इदं सर्वं पश्यतीतीन्द्रः सर्वद्रष्टा सर्वशक्तिमानीश्वरः। शवः=शवसो बलस्य। मह्ना=महत्त्वेन। रोदसी= द्यावापृथिव्यौ। पप्रथत्=अप्रथयत् व्यस्तारयदजनयदि- त्यर्थः। इन्द्रः=परमात्मैव। सूर्यम्। अरोचयत्= रोचयति=प्रदीपयति। सूर्य्यमित्युपलक्षणम्। सर्वाणि वस्तून्ययमेव प्रदीपयतीत्यर्थः। तथा। इन्द्रे। विश्वा=विश्वानि सर्वाणि। भुवनानि=पृथिव्यादीनि महाभूतानि प्राणि जातानि च। येमिरे ह=स्थापितानि= उपरतानि सन्ति। इन्द्रे=परमात्मनिमित्तायैव। इन्दवः=इन्दन्ति परमैश्वर्य्यवन्तो भवन्ति ये त इन्दव ईश्वरा नृपादयः। यद्वा। इदं ददतीतीन्दवो दातारः। यद्वा। इन्धते स्वोपदेशैर्ये दीपयन्ति त इन्दवो विद्वांसः। यद्वा। सोमादयः सर्वे पदार्थाः। सुवानासः=शुभकर्माणि कुर्वाणा दृश्यन्ते। यद्वा। फलान्युत्पादयन्तो दृश्यन्ते ॥६॥
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ARYAMUNI

अथ कर्मयोगिनो बलमहिमा वर्ण्यते।

Word-Meaning: - (इन्द्रः) कर्मयोगी (शवः) बलस्य (मह्ना) महिम्ना (रोदसी) द्यावाभूमी (पप्रथत्) व्याप्नोति (इन्द्रः) कर्मयोगी (सूर्यं, अरोचयत्) मूर्खेषु विद्वत्वमुत्पाद्य तेषां सूर्योदये कार्येषु संयमनात् सूर्यप्रभां सफली करोति (इन्द्रे, ह) कर्मयोगिणि हि (विश्वा, भुवनानि) विश्वानि भूतजातानि (येमिरे) नियमनं प्राप्यन्ते (सुवानासः) अभिषूयमाणाः (इन्दवः) भोजनपानार्हाः पदार्थाः (इन्द्रे) कर्मयोगिण्येव उपगच्छन्ति ॥६॥