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इ॒दं व॑सो सु॒तमन्ध॒: पिबा॒ सुपू॑र्णमु॒दर॑म् । अना॑भयिन्ररि॒मा ते॑ ॥

English Transliteration

idaṁ vaso sutam andhaḥ pibā supūrṇam udaram | anābhayin rarimā te ||

Pad Path

इ॒दम् । व॒सो॒ इति॑ । सु॒तम् । अन्धः॑ । पिब॑ । सुऽपू॑र्णम् । उ॒दर॑म् । अना॑भयिन् । र॒रि॒म । ते॒ ॥ ८.२.१

Rigveda » Mandal:8» Sukta:2» Mantra:1 | Ashtak:5» Adhyay:7» Varga:17» Mantra:1 | Mandal:8» Anuvak:1» Mantra:1


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SHIV SHANKAR SHARMA

सब शुभकर्म परमात्मा को समर्पित करने चाहियें, यह इससे दिखलाते हैं।

Word-Meaning: - वसु=सर्वव्यापी जो सर्वत्र वसता है, उसको वसु कहते हैं। यद्वा जो सबको वसाता है, वह वसु=वासक। परन्तु यह शब्द धनवाची ही प्रसिद्ध है, अतः जिसके धन हो, वह वसु। इस संसार में जो कुछ धन है, वह ईश्वर का ही है, वही वस्तुतः धनवान् है, अतः यहाँ धनवाची शब्द के द्वारा ही वह पुकारा गया है। जिस हेतु सब अन्न उसी का है, अतः वह अन्न उसी को समर्पित करना उचित है। और भी। ईश्वर इसको बनाकर अन्त में इसका स्वयं संहार करता है, अतः महर्षिगण उपनिषदों में उसको महाभक्षक कहकर गाते हैं। क्योंकि इस सम्पूर्ण जगत् को खाता हुआ भी वह तृप्त नहीं होता। अतः जो अन्न मनुष्य का हितकर नहीं है, वह भी उसी को समर्पणीय है। इत्यादि शिक्षा इस ऋचा से भगवान् देते हैं। अथ ऋगर्थः−(वसो) हे महाधनाढ्य ईश्वर ! (इदम्) यह दृश्यमान (सुतम्) जगत् के पोषणरूप महायज्ञ के लिये स्वयमेव तुझसे शोधित जो (अन्धः) अपने प्रभाव से भक्षक को मोहित करनेवाला अन्न है, उसको स्वयमेव तू (पिब) पी=संहार कर, जिससे (उदरम्) उदर (सुपूर्णम्) सुपूर्ण हो। यह भक्तिवचन है। (अनाभयि१न्) हे भयरहित ! मनुष्यादिकों को सर्व प्रकार अन्नों के भक्षण में भय रहता है। क्योंकि वे खाद्य पदार्थों के गुणों से अपरिचित हैं। परमात्मा वैसा नहीं, अतः वह अनाभयी है। हे निर्भय देव ! वह अन्न (ते) तुझको ही (ररिम) हम उपासकगण देते हैं, कृपया ग्रहण कर ॥१॥
Connotation: - बड़ी भक्ति और श्रद्धा से ईश्वर के नाम पर प्रत्येक वस्तु को प्रथम रख, तब उससे अपना कार्य्य लेवे, इसी नियम के अनुसार नवान्नेष्टि प्रभृति शुभकर्म गृहस्थों के गृहों में हुआ करते हैं ॥१॥
Footnote: १−अनाभयी−भगवान् भयरहित है, हमको भी भयरहित होना चाहिये। पापाचरण, असत्य, द्यूत आदि दुर्व्यसनों से तो अवश्य भय करना उचित ही है, किन्तु पापाचारी, असत्यवादी, सुरापायी, अन्यायी इत्यादि प्रकार के मनुष्यों से न डरकर उनको सुशिक्षित कर सत्पथ में लावें। यहाँ के लोग कल्पित अवस्तु भूत, प्रेत, डाकिनी, शाकिनी, शृगालाक्रोश आदि से डरते रहते हैं, अतः वे दुर्बलेन्द्रिय, कातर, समर के अयोग्य और समुद्र आदिकों की यात्रा करने में असमर्थ हो गये हैं। मनुष्य, इसमें सन्देह नहीं कि हृदय से दुर्बल होता है, अतः तत्तत्समाजस्थ विद्वान् को उचित है कि अपने समाज से भय के कारणों को सदा दूर किया करे। जैसा वेद भगवान् आज्ञा देते हैं−१−वृत्रहा शूर विद्वान्। जहि शत्रून् अपमृधो नुदस्वाथा−भयं कृणुहि विश्वतो नः ॥ यजु० ७।३७ ॥ (शूर) हे शूरवीर महापुरुष ! जिस कारण आप (वृत्रहा) निखिल विघ्नों का विनाश कर सकते हैं और आप (विद्वान्) सबको याथातथ्य जाननेवाले हैं, अतः (शत्रून्) भय के कारण निखिल शत्रुओं का (जहि) हनन करें (मृधः+अपनुदस्व) संग्रामों को होने न देवें और (विश्वतः) सब प्रकार से (नः+अभयं+कृणुहि) हमारा अभय करें। पुनः २−बाधतां द्वेषो अभयं कृणोतु सुवीर्य्यस्य पतयः स्याम ॥ यजु० २०।५१ ॥ (द्वेषः+बाधताम्) वह शूरवीर निखिल द्वेषों को हम लोगों से दूर करके (अभयं+कृणोतु) अभय की स्थापना करे (सुवीर्य्याय) हम लोग महाबलाधिपति होवें ॥१॥ यह अष्टम मण्डल का प्रथम सूक्त और सोलहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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ARYAMUNI

अब कर्मयोगी का सत्कार करना कथन करते हैं।

Word-Meaning: - (वसो) हे बलों से आच्छादन करनेवाले कर्मयोगिन् ! (इदं) वीरों के लिये विभज्यमान इस (सुतं) सिद्ध (अन्धः) आह्लादक रस को (सुपूर्णं, उदरं) उदरपूर्तिपर्य्यन्त (पिबा) पियो (अनाभयिन्) हे निर्भीक वीर ! (ते) तुम्हारे लिये (ररिमा) हम देते हैं ॥१॥
Connotation: - इस मन्त्र का भाव यह है कि सेना का नेता वीरों के प्रति कथन करता है कि हे कर्मयोगी शूरवीरो ! तुम इस सिद्ध किये हुए आह्लादक सोमादि रस का पान करो। यह तुम्हारे लिये सिद्ध किया हुआ है अर्थात् विजय को प्राप्त कर्मयोगी शूरवीरों की सेवा-शुश्रूषा सोमादि रसों से विधान की गई है ॥१॥
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SHIV SHANKAR SHARMA

सर्वाणि शुभकर्माणि परमात्मने समर्पणीयानि।

Word-Meaning: - वसुः=सर्वस्मिन् जगति यो वसति स वसुः=सर्वव्यापी। यद्वा। वसु धनमस्यास्तीति वसुः=धनवान्। मत्वर्थीयस्य लोपः। यद्वा। वासयति जगदिदमिति वसुः=वासकः। यत् किमपि संसारे धनमस्ति तत् सर्वमीश्वरस्यातो वस्तुतः परमात्मैव धनवान्। यतस्तस्तैवेदं सर्वमस्त्यतस्तदीयमन्नं तस्मायेव समर्पणीयमित्यनयर्चा भगवानुपदिशति। अन्यच्च−ईश्वर इदं सृष्ट्वान्ते स्वयमेव संहरत्यत ऋषय उपनिषत्सु तं महाभक्षकत्वेन गायन्ति। इदं सर्वं खादन्नपि न स तृप्तिमायाति अतोऽपि यदन्नं मनुष्यहितकरं नास्ति तदपि तस्मायेव समर्पयति। अथ ऋगर्थः−हे वसो=हे महाधनसम्पन्न ! हे वासक ईश्वर ! इदम्=पुरतो दृश्यमानम्। सुतमभिषुतं=जगत्पोषणयज्ञाय स्वमेव निष्पादितम्। अन्धः=अन्धयति स्वप्रभावेण अत्तारम् ईदृशं यदन्नमस्ति। तत्त्वमेव। पिब=संहर। येन तवोदरं सुपूर्णं भवेदिति प्रेमवचनम्। हे अनाभयिन्=आबिभेतीति आभयी। न आभयी अनाभयी निर्भयः। तत्सम्बोधने। इतरेषां सर्वप्रकारान्नभक्षणे भयमस्ति खाद्यगुणान- भिज्ञत्वात्। न तथेश्वरोऽस्तीति अनाभयीति विशेषणम्। यतस्त्वमनाभयी अतस्तादृशमन्नम्। ते=तुभ्यम्। वयं विवेचकाः। ररिम=दद्मः। तादृशमन्धजनकमन्नमस्मत्तः संहरेति यावत् ॥१॥
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ARYAMUNI

अथ कर्मयोगिनः सत्क्रिया कथ्यते।

Word-Meaning: - (वसो) हे बलैराच्छादयितः कर्मयोगिन् ! (इदं) इदं वीरेभ्यो विभज्यमानं (सुतं) सिद्धं (अन्धः) आह्लादकं रसं (सुपर्णं, उदरं) सुपूर्णमुदरं यावत् तावत् (पिबा) पिब (अनाभयिन्) हे निर्भीक वीर ! (ते) तुभ्यं (ररिमा) दद्मः ॥१॥