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प्रास्मै॑ गाय॒त्रम॑र्चत वा॒वातु॒र्यः पु॑रंद॒रः । याभि॑: का॒ण्वस्योप॑ ब॒र्हिरा॒सदं॒ यास॑द्व॒ज्री भि॒नत्पुर॑: ॥

English Transliteration

prāsmai gāyatram arcata vāvātur yaḥ puraṁdaraḥ | yābhiḥ kāṇvasyopa barhir āsadaṁ yāsad vajrī bhinat puraḥ ||

Pad Path

प्र । अ॒स्मै॒ । गा॒य॒त्रम् । अ॒र्च॒त॒ । व॒वातुः॑ । यः । प॒र॒म्ऽद॒रः । याभिः॑ । का॒ण्वस्य॑ । उप॑ । ब॒र्हिः । आ॒ऽसद॑म् । यास॑त् । व॒ज्री । भि॒नत् । पुरः॑ ॥ ८.१.८

Rigveda » Mandal:8» Sukta:1» Mantra:8 | Ashtak:5» Adhyay:7» Varga:11» Mantra:3 | Mandal:8» Anuvak:1» Mantra:8


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SHIV SHANKAR SHARMA

एकाग्रचित्त से ध्यात परमात्मा प्रसन्न होता है, यह इससे दिखलाया जाता है।

Word-Meaning: - हे मनुष्यो ! (अस्मै) दृश्यमान के समान इस इन्द्रवाच्य परमात्मा के लिये (गायत्र१म्) गायत्रीछन्दोयुक्त सामगान (प्र) अच्छे प्रकार (अर्चत) गाइये। क्योंकि (यः) जो परमात्मा (वावातुः) वावातु२ है और जो (पुरन्दरः) पुरन्दर है। हे मनुष्यो ! उन ऋचाओं को गाओ। (याभिः) जिनसे प्रसन्न होकर परमात्मा (काण्वस्य) जीवात्मा के३ (बर्हिः) यज्ञ को अथवा हृदयदेश को (उप+आसदम्) प्राप्त करने के लिये (यासत्) इच्छा करे। वह कैसा है (वज्री) न्यायार्थ महादण्डधारी है, पुनः (पुरः) जो पृथिवी प्रभृति लोकों तथा हम लोगों के उत्तम-२ शरीररूप नगरों को (भिनत्) बनाता और बिगाड़ता है अथवा दुष्ट पुरुषों के नगरों को जो छिन्न-भिन्न करता है ॥८॥
Connotation: - समाहित मन से ध्यात, सत्यवाणी से स्तुत, शुद्ध और हिंसारहित परोपकारादि कर्म से प्रसादित परमात्मा संतुष्ट होता है। अन्य मन से कृत कर्म्म विफल होते हैं, यह शिक्षा इससे देते हैं ॥८॥
Footnote: १−गायत्र−जिस सामगान में विशेष कर गायत्रीछन्द का ही गान होता है, वह गायत्र। अथवा गाय नाम प्राणों का है ‘गायाः प्राणास्त्रायन्ते रक्ष्यन्ते येन तद् गायत्रम्’ जिससे प्राणों की रक्षा हो, वह गायत्र अथवा गाने योग्य।२−वावातुः−जो प्राणों को प्राण देता है, वसाता है और विस्तार करता है। यह शब्द यहाँ तीन धातुओं से बना है। यद्वा जो सम्यक् भजने योग्य हो। यद्वा वावातुः वावातृ शब्द का षष्ठ्यन्तरूप है। स्तुतिकर्ता का जो प्रिय इन्द्र है, उसका गान करो।३−काण्व−कनति प्रदीपयति शरीर यः स काण्वः। यद्वा कणेषु सूक्ष्मेष्वपि शरीरेषु वसति स काण्वः। यद्वा कनतीति काण्। वसतीति वः काण्चासौ वः काण्वः। जो जीवात्मा शरीर को दीप्त करता है यद्वा सूक्ष्म से सूक्ष्म पदार्थ में जो वास करता है। यद्वा जो स्वयं प्रकाशस्वरूप है और सब में वसता है। कण्व नाम मेधावी पुरुष का भी है, तत्सम्बन्धी को काण्व कहते हैं।अर्चत−(प्रश्न) अर्च धातु का अर्थ पूजा करना है। अर्चत, प्रार्चत, पूजयत इत्यादि शब्दों के प्रयोग से मूर्तदेव की पूजा वेद बतलाता है। वैदिकगण अग्नि, वायु, सूर्य आदिकों को तो प्रत्यक्ष ही मूर्तिमान् देखते थे परन्तु इन्द्रादिकों को भी मूर्तदेव ही समझते थे। क्योंकि इन्द्र के दो हाथ, दो घोड़े हैं इत्यादि वर्णनों से वेद भरा हुआ है। (उत्तर) इसमें सन्देह नहीं कि अध्यारोप करके वेद में सब वर्णन आता है। ‘विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतोमुखः’ जिसके चक्षु, मुख, हस्त, पद आदि अवयव सर्वत्र हैं। यहाँ और सहस्रशीर्षा आदि स्थलों में क्या वास्तविक भौतिक चक्षु आदि का वर्णन है? नहीं, किन्तु जैसे हम मनुष्य नेत्रादिकों से देखते हैं वैसे, मानो, ईश्वर भी देखता सुनता इत्यादि निर्देश होता है। वस्तुतः उसके नेत्रादिकों के वर्णन से तात्पर्य्य नहीं। अन्यथा (विश्वतश्चक्षुः) उसका चक्षु सर्वत्र है। यह वर्णन कैसे हो सकता। जिसके नयनादि सब ही सर्वव्यापी हैं, वह मूर्त्त कैसे हो सकता, यह विचारने की बात है ॥(प्रश्न) अर्चत, प्रार्चत, प्रियमेधासो अर्चत। अर्चन्तु पुत्रका उत पुरं न धृष्ण्वर्चत ॥ ऋ० ८।९९।८ ॥ हे यज्ञप्रिय मनुष्यो ! इन्द्र की अर्चना करो। अच्छे प्रकार अर्चना करो। अवश्य अर्चना करो। पुत्र भी अर्चना करें। (धृष्णु) धर्षणशील=विजयी (पुरम्+न) नगर के समान (अर्चत) उसकी अर्चना करो। यहाँ उपमा से कदाचित् भ्रम उत्पन्न हो सकता है कि पताका पुष्पमाला आदिकों से भूषित करना नगर की अर्चना है। तद्वत् वस्त्रादिकों से मूर्ति की अर्चना करनी चाहिये। (उत्तर) वेद का यह आशय नहीं है। जिस नगर में शूर, वीर, धार्मिक, विद्वान्, सन्त, महात्मा होते हैं, उसके यश को प्रजाएँ गाया करती हैं। जैसे आज भी अयोध्या, काशी, जनकपुर आदि नगरों की कीर्त्ति को लोग बड़ी प्रेमभक्ति से गाते हैं। तद्वत् हे मनुष्यो ! उस परमात्मा का भी गान करो, यह शिक्षा इससे देते हैं। अर्च धातु का अर्थ यहाँ वास्तविक स्तुति करना गान करना इत्यादि है, क्योंकि स्तु, गै, शंस प्रभृति धातुओं के ही प्रयोग अधिक हैं ॥ग्रिफिथ साहब अर्च धातु का अर्थ Sing करते हैं। ग्रिफिथकृत अनुवाद इस प्रकार है−Sing sing ye forth your songs of praise, ye priyamedhas, sing your songs. Yea, let young children sing their Lauds, as a strong castle praise ye him.इसी मण्डल में अर्च धातु विस्पष्टरूप से गानार्थक प्रयुक्त हुआ है। देखिये−प्र व इन्द्राय बृहते मरुतो ब्रह्मार्चत ॥ ऋ० ८।८९।३ ॥ (मरुतः) हे मितभाषी स्तोतृगण ! (बृहते) महान् (इन्द्राय) इन्द्र के लिये (वः) अपना-२ (ब्रह्म) स्तोत्र (प्र+अर्चत) गान कीजिये। सायण “प्र+उच्चारयत” अर्थ करते हैं। इसी प्रकार अन्यान्य स्थलों की भी समालोचना से आप को वेदार्थ प्रतीत होगा। वेदों में जब भगवान् को सर्वव्यापी और सर्वान्तर्यामी सर्वात्मा माना है तब वह मूर्तिमान् देव है। वह किसी विशेष स्थान में वास करता है, इत्यादि वर्णन की संभावना नहीं। इति संक्षेपतः ॥८॥
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ARYAMUNI

अब विद्वानों को परमात्मा के ज्ञान का प्रचार करना कथन करते हैं।

Word-Meaning: - हे उपासको ! आप लोग (अस्मै) इस परमात्मा के लिये (गायत्रं, प्रार्चत) स्तुति करो (यः) जो परमात्मा (ववातुः, पुरन्दरः) उपासकों के विघात करनेवालों के पुरों का नाशक है (वज्री) शक्तिशाली परमात्मा (याभिः) जिन स्तुतियों से (काण्वस्य, बर्हिः) विद्वानों की सन्तान के हृदयाकाश में (आसदं, उपयासत्) प्राप्त होने के लिये आवे और (पुरः, भिनत्) अविद्या के समूह को भेदन करे ॥८॥
Connotation: - भाव यह है कि वह पूर्ण परमात्मा काण्व=विद्वानों की सन्तान का अविद्यान्धकार निवृत्त करके उनके हृदय में विद्या का प्रकाश करे, ताकि वे विद्या के प्रचार द्वारा परमात्मज्ञान का उपदेश करते हुए लोगों को श्रद्धालु बनावें और परमात्मा के गुणों का कीर्तन करते हुए आस्तिकभाव का प्रचार करें ॥८॥
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SHIV SHANKAR SHARMA

अनन्यमनसा ध्यातः परमात्मा प्रसीदतीत्यर्थं दर्शयति।

Word-Meaning: - हे मनुष्याः ! अस्मै=पुरतो दृश्यमानायेवेन्द्रवाच्याय परमात्मने। गायत्रं=गानीयं सामगानम्। प्र अर्चत=प्रकर्षेण गायत। योऽयं वावातुरस्ति=यो वाति सर्वेभ्यः प्राणान् ददाति दत्त्वा च वासयति ततस्तनोति विस्तारयति वर्धयति यः स वावातुः। त्रिभ्य आख्यातेभ्यो निष्पन्नोऽयं शब्दः। पुनः पुरन्दरः=पुरः पृथिव्यादिलोकान् दारयति विरचयति विनाशयति च। मनुष्यादीनां सुन्दराणि-२ शरीरपुराणि विरचय्य-२ यो दारयति विध्वंसयति स पुरन्दरः। दुष्टानां नगरविदारको वा। पुनः याभिः=गातव्याभिर्ऋग्भिः। काण्वस्य=सेवकस्य जीवस्य। बर्हिर्यज्ञम्। उप आसदम्=उपासत्तुमुपगन्तुम्। यासत्=इच्छेत्। तादृश ऋचो गातव्याः। स पुनः कथंभूतः वज्री=न्यायार्थं महादण्डधारी। पुनः। यः पुरः भिनत्=सूर्य्यादिलोकान् पुरोनगरीश्चाभिनत् विदारयति=सृजति विनाशयति च यद्वा दस्यूनां यः पुरो भिनत्ति ॥८॥
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ARYAMUNI

अथ विद्वद्भिः परमात्मोपदेशो वर्ण्यते।

Word-Meaning: - (अस्मै) अस्मै परमात्मने (गायत्रं) स्तुतिं (प्रार्चत) कुरुत उपासकाः (यः) यः परमात्मा (ववातुः) उपासकस्य (पुरंदरः) विघातकपुराणां नाशकः (याभिः) याभिः स्तुतिभिः (वज्री) शक्तिशाली सः (काण्वस्य) विदुषां सन्तानस्य (बर्हिः) हृदयाकाशं (आसदं) प्राप्तुं (उप, यासत्) आगच्छेत् (पुरः) अविद्यासमूहान् (भिनत्) भिन्द्यात् च ॥८॥