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वि त॑र्तूर्यन्ते मघवन्विप॒श्चितो॒ऽर्यो विपो॒ जना॑नाम् । उप॑ क्रमस्व पुरु॒रूप॒मा भ॑र॒ वाजं॒ नेदि॑ष्ठमू॒तये॑ ॥

English Transliteration

vi tartūryante maghavan vipaścito ryo vipo janānām | upa kramasva pururūpam ā bhara vājaṁ nediṣṭham ūtaye ||

Pad Path

वि । त॒र्तू॒र्य॒न्ते॒ । म॒घ॒ऽव॒न् । वि॒पः॒ऽचितः॑ । अ॒र्यः । विपः॑ । जना॑नाम् । उप॑ । क्र॒म॒स्व॒ । पु॒रु॒ऽरूप॑म् । आ । भ॒र॒ । वाज॑म् । नेदि॑ष्ठम् । ऊ॒तये॑ ॥ ८.१.४

Rigveda » Mandal:8» Sukta:1» Mantra:4 | Ashtak:5» Adhyay:7» Varga:10» Mantra:4 | Mandal:8» Anuvak:1» Mantra:4


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SHIV SHANKAR SHARMA

इन्द्र सबका कल्याण करे, यह इस से दिखलाते हैं।

Word-Meaning: - हे (मघवन्*) निखिलधनोपेत इन्द्र ! जो मनुष्य (विपश्चितः†) विद्वान् हैं। जो (जनानाम्) मनुष्यों के मध्य (अर्य्यः) श्रेष्ठ या गमनीय हैं। और जो (विपः) विविध प्रकार से पालन करनेवाले हैं। वे यदि (वि) विशेषरूप से (तर्त्तूर्यन्ते) किसी दुःखसागर में तैरते हों अर्थात् नाना क्लेशों में पड़े हुए हों, तो उनको (उपक्रमस्व) समीप जाकर आनन्दित कीजिये और (ऊतये) उनकी रक्षा के लिये (पुरुरूपम्) बहुरूप=विविध प्रकार के (वाजम्) धन (नेदिष्ठम्) उनके अतिशय समीप (आ+भर) ले आइये। हे भगवन् ! यह मेरी प्रार्थना आपके निकट स्वीकृत हो ॥४॥
Connotation: - भगवान् उपदेश देते हैं कि स्वग्रामनिवासी, स्वदेशस्थ और दूरस्थित विद्वानों को, प्रजाहितैषियों को और जनरक्षकों को सब कोई उत्साहित करें और उनको विपद् से बचावें ॥४॥
Footnote: * मघवा−यह नाम इन्द्र का ही है। अग्नि वायु आदि के विशेषण में इस शब्द का पाठ अतिस्वल्प है। इन्द्र, मरुत्वान्, मघवा, बिडौजाः, पाकशासन, वृद्धश्रवा, शुनाशीर, पुरुहूत, पुरन्दर इत्यादि अनेक नाम इन्द्र के कहे गए हैं। मघ नाम धन का है। जिसको धन हो, वह मघवा है। परमेश्वर का नाम ही धनवान् है, क्योंकि इससे बढ़कर कौन धनाढ्य हो सकता है। जिस हेतु वह सर्वधनसम्पन्न है, अतः उससे सम्पत्ति की प्रार्थना होती है ॥ † विपश्चितः−जो विशेषरूप से मनुष्यों के क्लेशों को देखते और देखकर उन क्लेशों के नाश के लिये उपायों को चुनते हैं, वे विपश्चित्। यद्वा जो विशेषरूप से परमात्मा की विभूतियों के तत्त्वों को देखते और उनका संग्रह करते हैं, वे विपश्चित्। निघण्टु ३।१५ में मेधावी (विद्वान्) के नाम २४ आए हैं। यथा−विप्रः। विग्रः। गृत्सः। धीरः। वेनः। वेधाः। कण्वः। ऋभूः। नवेदाः। कविः। मनीषी। मन्धाता। विधाता। विपः। मनश्चित्। विपश्चित्। विपन्यवः। आकेनिपः। उशिजः। कीस्तासः। अद्धातयः। मतयः। मतुथाः। वाघतः। इति चतुर्विंशतिर्मेधाविनामानि। यहाँ विपश्चित् और विप इन दोनों शब्दों का पाठ है। विद्वान् विपश्चिद् दोषज्ञः सन् सुधी कोविदो बुधः। इतने विद्वान् के नाम हैं ॥४॥
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ARYAMUNI

Word-Meaning: - (मघवन्) हे ऐश्वर्य्यसम्पन्न परमात्मन् ! (विपश्चितः) आपकी आज्ञापालन करनेवाले पुरुष (अर्यः) प्रतिपक्षी के प्रति शत्रुभाव को प्राप्त होने पर (जनानां, विपः) शत्रुओं को कम्पित करते हुए (तर्तूर्यन्ते) निश्चय विपत्तियों को तर जाते हैं। (ऊतये, उप, क्रमस्व) आप हमारी रक्षा के लिये हमें प्राप्त हों। (पुरुरूपं) अनेक रूपवाले (नेदिष्ठं) समीपदेश में उत्पन्न (वाजं, आभर) अन्नादि पदार्थों से सदैव हमें भरपूर करें ॥४॥
Connotation: - इस मन्त्र का भाव यह है कि वेदोक्तकर्म करनेवाले विद्वान् पुरुष परमात्मा की कृपा द्वारा नानाविध उपायों से सब संकट तथा विपत्तियों को पार कर जाते हैं। वे कभी भी शत्रुओं से पराजित न होकर उनको कंपानेवाले होते हैं और नाना सुखसाधन योग्य पदार्थों को सहज ही में उत्पन्न कर सकते हैं, इसलिये पुरुषों को वेदविद्या का अध्ययन और परमात्मा की आज्ञा का पालन करना चाहिये, जिससे सुख प्राप्त हो ॥४॥
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SHIV SHANKAR SHARMA

इन्द्रः सर्वेषां भद्रं विदधात्वित्यनया दर्शयति।

Word-Meaning: - हे मघवन्=हे सर्वैश्वर्य्यसम्पन्न ! मघमिति धननाम, निघण्टु ।२।१०। ये जना विपश्चितः सन्ति=ये विशेषेण जनानां क्लेशान् पश्यन्ति दृष्ट्वा च तत्प्रहाणाय प्रतीकारांश्च चिन्वन्ति ते विपश्चितः। यद्वा विशेषेण पश्यन्तीति विपो विशेषज्ञाः। चिन्वन्तीति चितः। विपश्च ते चितो विपश्चितो विद्वांसः। यद्वा ये विशेषेण परमात्मविभूतितत्त्वं पश्यन्ति चिन्वन्ति च ते विपश्चितः। ये च जनानां मध्ये। अर्य्यः=अर्य्य्याः पूज्या गमनीयाः सन्ति। पुनः ये च विपः=विपा विशेषपालकाः सन्ति। ते यदि वितर्त्तूर्य्यन्ते=दुःखे अतिशयेन वितरेयुः क्लेशे निमग्ना भवेयुः। तर्हि तान् हे इन्द्र ! उपक्रमस्व=उपगम्य आनन्दय। तथा ऊतये=रक्षणाय तेषां। पुरुरूपं=बहुरूपम्। वाजम्=अन्नम् तेषां। नेदिष्ठमन्तिकतमम्। आभर=आहर आनय ॥४॥
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ARYAMUNI

Word-Meaning: - (मघवन्) हे धनाद्यैश्वर्य्यवन् परमात्मन् ! ये (विपश्चितः) भवदीयज्ञानवन्तो जनास्ते (अर्यः) स्वशत्रुं प्रत्यरित्वमापन्नाः (जनानां, विपः) स्वविरोधिजनानां वेपयितारः सन्तः (तर्तूर्यन्ते) भृशमापदं तरन्ति (उपक्रमस्व) अतोऽस्मान् प्राप्नुहि (ऊतये) रक्षायै च (पुरुरूपं) सर्वविधं (नेदिष्ठं) अदूरदेशस्थं (वाजं) अन्नाद्यैश्वर्यं (आभर) पूरय ॥४॥