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मा भू॑म॒ निष्ट्या॑ इ॒वेन्द्र॒ त्वदर॑णा इव । वना॑नि॒ न प्र॑जहि॒तान्य॑द्रिवो दु॒रोषा॑सो अमन्महि ॥

English Transliteration

mā bhūma niṣṭyā ivendra tvad araṇā iva | vanāni na prajahitāny adrivo duroṣāso amanmahi ||

Pad Path

मा । भू॒म॒ । निष्ट्याः॑ऽइव । इन्द्र॑ । त्वत् । अर॑णाःऽइव । वना॑नि । न । प्र॒ऽज॒हि॒तानि॑ । अ॒द्रि॒ऽवः॒ । दु॒रोषा॑सः । अ॒म॒न्म॒हि॒ ॥ ८.१.१३

Rigveda » Mandal:8» Sukta:1» Mantra:13 | Ashtak:5» Adhyay:7» Varga:12» Mantra:3 | Mandal:8» Anuvak:1» Mantra:13


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SHIV SHANKAR SHARMA

इससे आशीर्वाद की प्रार्थना करते हैं।

Word-Meaning: - (इन्द्र) हे इन्द्र ! (त्वत्) तेरी कृपा से हम भक्तजन (निष्ट्या+इव) अत्यन्त नीच के समान (मा१+भूम) न होवें। तथा (अरणाः+इव) अरमण=क्रीड़ारहित=उत्सवादिरहित पुरुषों के समान हम न होवें। तथा (प्रजहितानि) शाखा पल्लवादि से रहित (वनानि+न) वनों के समान पुत्रादिवियुक्त न होवें, किन्तु (अद्रिवः) हे दण्डधारिन् इन्द्र ! (दुरोषासः) गृहों में निवास करते हुए या अन्यान्यों से अनुपद्रुत होकर हम उपासक आपकी (अमन्महि) स्तुति करें, ऐसी कृपा कीजिये ॥१३॥
Connotation: - आलस्य मृत्यु है और चेष्टा जीवन है, यह मन में रखकर विद्या, धन और प्रतिष्ठा के लिये सदा प्रयत्न करना चाहिये। ज्ञानलाभार्थ अतिदूर से दूर अन्य महाद्वीप में भी जाना उचित है। तभी मनुष्य सुखी हो सकते हैं। क्षुधार्त्त, रोगग्रस्त, आतुर, गृहादिरहित और अकिञ्चन जन परमात्मा में मनोनिवेश नहीं कर सकते, इसी हेतु “हम सौ वर्ष अदीन होवें” “हम नीच न होवें” इत्यादि प्रार्थना होती है ॥१–३॥
Footnote: १−मा=नहि। निषेधार्थक अव्यय। “मास्म मालं च वारणे” मास्म, मा और अलम् ये तीनों निवारणार्थ में आते हैं। वेदों में निषेधार्थक मा शब्द के साथ बहुत लाभदायक आत्मशान्तिप्रद वाक्य आते हैं। मनुष्यमात्र को उचित है कि वे वाक्य हृदयंगम करें। दो चार निदर्शन मैं यहाँ दिखलाता हूँ। १−मा गृधः कस्य स्विद् धनम्। यजुः ४०।१। किसी अन्य के धन का लालच मत कर। २−माहं राजन्नन्यकृतेन भोजम् ॥ ऋ० २।२८।९। हे राजन् ! दूसरों के उपार्जित धन से मैं भोगशाली न होऊँ। ३−मा हिंसिष्ट पितरः केन चिन्नो यद्व आगः पुरुषता कराम ॥ ऋ० १०।१५।६ ॥ हे पितरो ! मनुष्य-दुर्बलता के कारण यदि आप लोगों का कोई अपराध हमने किया हो, तो उस अपराध से हमारी हिंसा न करें। मा के अर्थ में मो शब्द के भी प्रयोग बहुत हैं। यथा−मो षु वरुण मृन्मयं गृहं राजन्नहं गमम् ॥ ऋ० ७।८९।१ ॥ हे वरुण राजन् ! मैं मृत्तिकारचित गृह में निवास के लिये न जाऊँ ॥ मो षु णः सोम मृत्यवे परा दाः ॥ऋ०॥ हे सोम ! हमको मृत्यु के निकट मत फेंक। मो षु णः परापरा निर्ऋतिर्दुर्हणा वधीत् ॥ ऋ० १।३८।६। हे भगवन् ! महाबलवती और दुर्वधा पापदेवता हमारा वध न करे। मो शब्द के साथ वाक्यालंकार में प्रायः सु शब्द का प्रयोग आता है। वैदिक सन्धि से सु के स्थान में षु होता है। मा के स्थान में क्वचित् मा कि और माकीं शब्द का भी प्रयोग होता है। यथा−माकिर्नो अघशंस ईशत ॥ य० ३३।६९ ॥ (अघशंसः) पापी जन (वः) हमारा (माकिः+ईशत) शासक न हो। माकिर्नेशन्माकीं रिषन्माकीं सं शारि केवटे। अथारिष्टाभिरा गहि ॥ ऋ० ६।५४।७ ॥ हे पूषन्देव ! हमारा गोधन (माकिः+नेशत्) नष्ट न हो। (माकीम्+रिषत्) हिंसित न हो और (केवटे) कूप आदि जलाशय में गिर के (माकीम्+संशारि) विशीर्ण=भग्न न हो। हे भगवन् ! (अरिष्टाभिः) अहिंसिता गौवों के साथ (आगहि) आप विराजमान होवें ॥१३॥
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ARYAMUNI

अब यह वर्णन करते हैं कि मनुष्य किन−किन भावों से सद्गुणों का पात्र बनता है।

Word-Meaning: - (इन्द्र) हे परमात्मन् ! (त्वत्) आपके अनुग्रह से हम लोग (निष्ट्याः, इव) नीच के समान तथा (अरणाः, इव) अरमणीय के समान (मा, भूम) मत हों और (प्रजहितानि) भक्तिरहित (वनानि) उपासकों के समान (न) न हों (अद्रिवः) हे दारणशक्तिवाले परमेश्वर ! आपके समक्ष (दुरोषासः) शत्रुओं से निर्भीक हम आपकी (अमन्महि) स्तुति करते हैं ॥१३॥
Connotation: - इस मन्त्र में यह वर्णन किया है कि विद्या तथा विनय से सम्पन्न पुरुष में सब सद्गुण निवास करते हैं अर्थात् जो पुरुष परमात्मा की उपासनापूर्वक भक्तिभाव से नम्र होता है, उसके शत्रु उस पर विजय प्राप्त नहीं कर सकते, सब विद्वानों में प्रतिष्ठा प्राप्त करता और सब गुणी जनों में मान को प्राप्त होता है, इसलिये सब पुरुषों को उचित है कि नीचभावों के त्यागपूर्वक उच्चभावों का ग्रहण करें, ताकि परमपिता परमात्मा के निकटवर्ती हों ॥१३॥
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SHIV SHANKAR SHARMA

अनयर्चाऽऽशिषं प्रार्थयते।

Word-Meaning: - हे इन्द्र ! वयम्। त्वत्−त्वत्प्रसादात्। निष्ट्या इव=नीचैर्भूता हीना निष्ट्याः। त इव मा भूम। अरणाः=अरमणीया उदासीना इव। वयं मा भूम। अपि च। प्रजहितानि=प्रक्षीणानि शाखादिभिर्वियुक्तानि। वनानि न=वृक्षजातानीव वयं पुत्रादिभिर्वियुक्ता मा भूम। हे अद्रिवः=दण्डधारिन् ! वयं। दुरोषासः=सन्तः= ओषितुमन्यैर्दग्धुमशक्याः अन्यैरनुपद्रुताः सन्तः। दुर्य्येषु=गृहेषु निवसन्तो वा। अमन्महि=त्वां स्तुमः। ईदृशी कृपा विधेया ॥१३॥
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ARYAMUNI

अथ मनुष्यः केनभावेन सद्गुणाधारो भवतीति वर्ण्यते।

Word-Meaning: - (इन्द्र) हे परमात्मन् ! (त्वत्) त्वत्सकाशात् (निष्ट्याः, इव) लोकैस्त्याज्या इव तथा (अरणाः, इव) अरमणीया इव (मा, भूम) न भवेम तथा (वनानि) उपासकाः (प्रजहितानि, न) त्यक्ता इव मा भूम (अद्रिवः) हे दारणशक्तिमन् ! त्वत्समीपे (दुरोषासः) अन्यैर्भर्त्सयितुमशक्या वयम् (अमन्महि) स्तुमस्त्वाम् ॥१३॥