Go To Mantra

यत्तु॒दत्सूर॒ एत॑शं व॒ङ्कू वात॑स्य प॒र्णिना॑ । वह॒त्कुत्स॑मार्जुने॒यं श॒तक्र॑तु॒: त्सर॑द्गन्ध॒र्वमस्तृ॑तम् ॥

English Transliteration

yat tudat sūra etaśaṁ vaṅkū vātasya parṇinā | vahat kutsam ārjuneyaṁ śatakratuḥ tsarad gandharvam astṛtam ||

Pad Path

यत् । तु॒दत् । सूरः॑ । एत॑शम् । व॒ङ्कू इति॑ । वात॑स्य । प॒र्णिना॑ । वह॑त् । कुत्स॑म् । आ॒र्जु॒ने॒यम् । श॒तऽक्र॑तुः । त्सर॑त् । ग॒न्ध॒र्वम् । अस्तृ॑तम् ॥ ८.१.११

Rigveda » Mandal:8» Sukta:1» Mantra:11 | Ashtak:5» Adhyay:7» Varga:12» Mantra:1 | Mandal:8» Anuvak:1» Mantra:11


Reads times

SHIV SHANKAR SHARMA

ईश्वर का अतिशय प्रेम इससे दिखलाते हैं।

Word-Meaning: - (यत्) जब (सूरः१) कर्मविपाक (एतश२म्) जीवात्मा को (तुदत्) जन्म लेने के लिये व्यथित=प्रेरित करता है, तब वही (शतक्रतुः) अनन्तकर्मशाली इन्द्रवाच्य परमात्मा (वङ्कू) कुटिल=वक्रगामी (वातस्य) वायुसदृश वेगवान् (पर्णिना) अपने-२ विषय में पतनशील=दौड़नेवाले बाह्येन्द्रिय और अन्तःकरणरूप दो घोड़ों को देकर (आर्जुनेय३म्) प्रकृतिजन्य (कुत्स४म्) संसार में (वहत्) उस जीव को ले आता है। केवल ले ही नहीं आता, किन्तु (गन्धर्वम्) कर्मफलधारी (अस्तृतम्) अहिंसित=अविनश्वर जीव के साथ (त्सरत्) स्वयं भी परमात्मा जाता है अर्थात् उसके साथ सदा रहता है, ऐसा वह दयालु है ॥११॥
Connotation: - अज्ञानमय और क्लेशपूर्ण इस संसार को देखकर इससे विराग करे। तथा परमात्मा की सेवा से इस जीवात्मा का उद्धार करे, जिससे पुनः इस महान् संसार-सागर में अवपतन न हो, वैसा यत्न करे ॥११॥
Footnote: इस ऋचा के द्वारा परमात्मा की महती कृपा और सखिभाव दिखलाते हैं−१−सूर−प्रेरणार्थक सु धातु से सूर शब्द बनता है। जिस कारण जीवात्मा को जन्मग्रहण करने के लिये फलोन्मुख कर्म प्रेरणा करता है, अतः कर्मविपाक का नाम सूर है। सुवति प्रेरयति इति सूरः। २−एतशम्−एतत्, इदम् पद से जिसका निर्देश होता है।२−यद्वा ‘एतस्मिन् शरीरे शेते यः स एतशः पुरुषः’ जो पुरुष शब्द का अर्थ है, वही एतश शब्द का।३−आर्जुनेय=अर्जुनी नाम प्रकृतिदेवी का है। त्रिगुणमयी प्रकृति का पुत्र आर्जुनेय।४−कुत्स=संसार। कुत्सा नाम निन्दा का है, जिसमें कुत्सा हो, वह कुत्स=निन्द्य। इस संसार में दुःख की अधिकता है, अतः यह कुत्स है ॥११॥
Reads times

ARYAMUNI

अब परमात्मा की शक्ति से ही सूर्य्यादिकों का प्रकाशन कथन करते हैं।

Word-Meaning: - (यत्) जो (सूरः) सूर्य्य (एतशं) गतिशील (आर्जुनेयं) भास्वर श्वेतवर्णवाले (कुत्सं) तेजोरूप शस्त्र तथा (वातस्य) वायुसम्बन्धी (वङ्कू) वक्रगति वाली (पर्णिना) पतनशील प्रकाशक और संचारकरूप दो शक्तियों को (वहत्) धारण करता हुआ (तुदत्) लोकों का भेदक बनता है, वह (शतक्रतुः) शतकर्मा परमात्मा ही (अस्तृतं) अनिवार्य्य (गन्धर्वं) गो=पृथिव्यादि लोकों को धारण करनेवाले सूर्य्य में (त्सरत्) गूढगति से प्रविष्ट है ॥११॥
Connotation: - गतिशील इस सूर्य्य में आकर्षण तथा विकर्षणरूप दो शक्तियाँ पाई जाती हैं। उनका धाता तथा निर्माता एकमात्र परमात्मा ही है और सूर्य्य जैसे कोटानकोटि ब्रह्माण्ड के स्वरूप में ओतप्रोत हो रहे हैं, इसीलिये मन्त्र में उसको “शतक्रतुः”=सैकड़ों क्रियाओंवाला कहा है। सूर्य्य को “गन्धर्व” इसलिये कहा है कि पृथिव्यादि लोक उसी की आकर्षणशक्ति से ठहरे हुए हैं और वायुसम्बन्धी कहने का अभिप्राय यह है कि तेज की उत्पत्ति वायु से होती है, जैसा कि “तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाशः सम्भूतः आकाशाद्वायुः वायोरग्निः” तैत्तिरीयोपनिषद् में वर्णन किया है कि वायु से अग्नि उत्पन्न हुई, इत्यादि प्रमाणों से सिद्ध है कि सूर्य्य-चन्द्रमादिकों का प्रकाश परमात्मा की शक्ति से ही होता है, अन्यथा नहीं ॥११॥
Reads times

SHIV SHANKAR SHARMA

ईश्वरस्य प्रेमातिशयं दर्शयत्यनया।

Word-Meaning: - यत्=यदा। सूर=कर्मविपाकः। “सू प्रेरणे तौदादिकः”। सुवति=कर्मफलानि भोक्तुं जीवात्मानं यः प्रेरयति स सूरः। एतशं=जीवात्मानम्। तुदत्=व्यथयति जन्मग्रहणाय। तदा शतक्रतुः=अनन्तकर्मा इन्द्रवाच्य ईशानः। वङ्कू=वक्रगामिनौ। वातस्य=वायोः सदृशौ। पर्णिना=पतनशीलौ=बाह्याभ्यन्तरकरणरूपौ अश्वौ च दत्त्वेति शेषः। आर्जुनेयम्=अर्जुन्याः प्रकृतेः पुत्रम् आर्जुनेयम्। कुत्सं=संसारम्। तमेतशम्। वहद्=आनयति। तमानीय स्वयमपि तेन सह। त्सरति=गच्छति सदा तिष्ठतीति तस्य महती कृपा। कीदृशं तम्। गन्धर्वम्=गवां कर्मफलानां धातारम्। पुनः। अस्तृतम्=अहिंसितमहतम्=अविनश्वरम् ॥११॥
Reads times

ARYAMUNI

अथ परमात्मशक्त्यैव सूर्यादयो भासन्त इति निरूप्यते।

Word-Meaning: - (यत्) यद्धि (सूरः) सूर्य्यः (एतशं) गतिशीलं (आर्जुनेयं) श्वेतं भास्वरं (कुत्सं) तेजोरूपशस्त्रं (वातस्य) वातसम्बन्धिन्यौ (वङ्कू) वक्रगती (पर्णिना) पतनशीले द्विविधे शक्ती च (वहत्) धारयति (तुदत्) लोकं व्यथयति च तत् (शतक्रतुः) बहुकर्मा परमात्मैव (अस्तृतं) अनिवार्यं (गन्धर्वं) पृथिव्यादीनां धर्तारं तं सूर्यं (त्सरत्) गूढगत्या प्राविशत् ॥११॥